Friday, 11 December 2015

कन्यारत्न


कन्यारत्न 



ये कहानी हरियाणा  के एक गाँव मथाना  की है। कौशल्या और उसके पति जगदीश ने बड़ी मुश्किलों से अपनी बेटी गहना  की शादी निपटाई। बेटी सदा से उसके लिए बोझ थीं। अपनी बेटी  से मजाल है जो  उसने कभी प्यार जताया हो। उसने अपने पति को भी सख्त आदेश दिया था  कि बेटी  को लाड कर के बिगाड़ना नहीं है। बेटे को वो पौष्टिक खाना देती किन्तु बेटी को बड़ी ही मुश्किल से थोड़ा सा खाना देती थी। उसका मानना था कि बेटी को यदि जन्म के पहले ही मार दिया जाए तो उन्हें पालने, खिलाने-पिलाने और शादी ब्याह का सिरदर्द नहीं होता। जैसे तैसे उसने अपनी बेटी का कन्यादान किया और एक चैन की सांस ली क्योंकि अब उनका लाडला बेटा, राजेश ही उनके साथ रह गया था। कौशल्या को अपने पुत्र से बड़ी आशाऐं  थीं। 
        कुछ समय पश्चात उसने अपने पुत्र का भी एक सुन्दर एवं सुशील कन्या, सरिता से  धूमधाम से विवाह कर दिया, जो इतना दहेज़ लाई  कि घर भर का मन उसने चुटकियों में जीत लिया। और तो और  सरिता ने अपने सरल व्यवहार से उस घर में अपना एक स्थान बना लिया था। केवल पति ही नहीं, सास, ससुर भी उससे अति प्रसन्न थे।  वो किसी को कोई शिकायत का मौका ही नहीं देती थी। साल कैसे बीत गया कुछ पता ही न चला। 
       अब कौशल्या से इन्तजार सहन नहीं हो रहा था। उसने अपने  पोते का मुँह  देखने की इच्छा सरिता को बताई। जब राजेश को इस बात का पता चला तो उसने भी अपनी माँ की बात का समर्थन किया। और कुछ ही समय में ईश्वर ने सरिता को नारी के सर्वोत्तम श्रृंगार से सुसज्जित किया यानि कि उसे माँ बनने का सौभाग्य प्रदान किया। एक-दो महीने तक सब ठीक था। सभी सरिता पर अपना स्नेह लुटा रहे थे। 
       किन्तु कुछ दिनों से सरिता को कौशल्या कुछ उदास सी लगी। उसके पूछने पर उसने कहा कि किसी प्रकार यदि पता चल जाए कि आने वाली संतान बेटा है या बेटी तो वो चिंतामुक्त हो जाएंगी। सरिता ने सोचा कि पहला पोता है इसलिए उन्हें जानने की जिज्ञासा होगी। 
     चौथे महीने में सरिता की जांच कराई गई जिसके अनुसार उसके गर्भ में एक कन्या का भ्रूण  था। सरिता को इससे कुछ अंतर न पड़ा। आखिर माँ तो माँ ही होती है। किन्तु धीरे-धीरे कौशल्या, राजेश और उसके ससुर उसे गर्भपात के लिए विवश करने लगे। 
सरिता बहुत गिड़गिड़ाई , किन्तु आज उन सबका प्यार कपूर की भांति उड़ चुका था। 
और आखिरकार गर्भपात  का दिन आ गया। सरिता विवश थी।  उसके मायके वालों ने भी हाथ खींच लिया था।  
क्या करे ? कहाँ जाए ? कैसे अपनी अजन्मी बेटी अपने कन्यारत्न  को इन दानवों, इन हत्यारों  से बचाए ? वो इसी उहापोह में थी कि उसे लगा कि यमराज का बुलावा आ गया है। 

पर पता नहीं कैसे एक चमत्कार हो गया।  डॉक्टर ने कहा कि वो, ये गर्भपात नहीं कर सकते क्योंकि इसमें  बच्चा और माँ  दोनों की जान को खतरा है। 

और इस प्रकार सरिता की पुत्री रानी ने जन्म लिया।
कुछ दिन तक तो सब ठीक रहा पर सरिता को अपने पति और उसके माता पिता के इरादे ठीक नहीं लगे। वे बच्ची को किसी भी प्रकार से (चारपाई के पाए के नीचे दबाकर, दूध में डुबाकर, या जानवरों के आगे छोड़कर )मारना चाहते थे। सरिता रात दिन घर का काम भी निपटाती और अपनी रानी की निगरानी भी करती। 
पर कहते हैं न कि 
जाको राखे साइयाँ, मार सके ना कोई। 
धीरे धीरे रानी साल भर की हो गई। सरिता एक बार फिर से गर्भवती हुई। पुनः वही सब दोहराया जाने लगा। तभी उसकी नन्द, गहना अपने मायके वापस आ गई। एक कुपोषण की शिकार औरत, गहना का हर बार गर्भपात  हो जाता था। इसलिए उसके पति ने इलाज करने के बजाए  उसे घर से ही निकाल दिया। 
गहना,अपनी भाभी का सहारा बनने का प्रयास करने लगी। वो रानी को प्यार करती और उसे फलफूल खिलाती। 
कुछ समय पश्चात सरिता एक बार फिर गर्भवती हुई। इस बार कौशल्या ने पहले से ही डॉक्टर से कह दिया था की यदि कन्या भ्रूण है तो उसे ख़त्म ही करना होगा चाहे बहू बचे या न बचे। 
इस बार फिर से कन्या थी। सरिता का पति और सास-ससुर, रानी और गहना को घर में बंद कर सरिता को जबरदस्ती गर्भपात के लिए ले गए। सरिता अपने कन्यारत्न को खोकर बौखला सी गई। रानी और गहना उसका ध्यान रखती थी। ऐसा ही फिर और दो बार हुआ। सरिता तन-मन दोनों से टूट चुकी थी। 
पाँचवी  बार उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई। सब खुश थे। किन्तु सरिता नहीं। उसके घायल मन पर अब किसी तरह का मलहम असर नहीं करता था। 
तभी गांव में एक अध्यापिका आई। उन्होंने जब गहना से सरिता का हाल सुना तो पूछा कि क्या सरिता पढ़ी लिखी है। रानी, सरिता को बहाने से अध्यापिका के पास ले गई। और उन्ही अध्यापिका ने सरिता के जीवन में उम्मीद की एक नई  किरण जगाई।  
सरिता, गहना, रानी और अपने पुत्र के साथ घर छोड़कर शहर आ गई।  अध्यापिका की सहायता से  उसे और गहना को किसी स्कूल में सफाई का काम मिल गया। उसने और गहना ने प्रण किया कि हम कन्या को खूब पढ़ाएंगे-लिखाएँगे , पोषक भोजन कराएंगे और  उसे उसके जीवन के सारे अधिकार एवं सारे सुख देंगे। 
पढ़-लिख कर आज वो कन्या एक होनहार डॉक्टर है। 


"बेटियाँ घर की शान होती हैं। 
ईश्वर का दिया एक वरदान होती हैं। 
उनके आने से घर में सुकून और, 
सब  के होंठों पर मुस्कान होती है। 
बोझ नही , ये बोझ नहीं 
ये तो  है अनमोल रतन। 
ये तेरा मान बढ़ाएंगी ,
मत कर  पापी तू गर्भपतन। " 


-----समाप्त------ 
   


Monday, 7 December 2015

मेरा भारत महान



मेरा भारत महान 


प्रिय दोस्तों, मेरा लेख हाल ही में बाढ़ से आपदाग्रस्त हुए क्षेत्र चेन्नई के लिए है। 


हमारा जीवन, ईश्वर का दिया हुआ एक अभूतपूर्व उपहार है। किन्तु अनेकों बार हमें इसे सुन्दर और सफल बनाने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं। जीवन में कभी धूप कभी छाँव, कभी दुःख के बादल तो कभी सुख की शीतल फुहार होती है । बस आवश्यकता है तो मन में ढृढ़ विश्वास की ज्योति जलाए रखने की, एक दूसरे की सहायता और सहयोग करने की और फिर देखिये कैसे चुटकियों में आप दुःख और कष्टों के दानवों को हराकर विजयी होते हैं। 
आज चेन्नई में बाढ़ रुपी भीषण संकट आया है।  और इस संकट की घडी में जिस प्रकार से हमारे देशवासियों ने, सरकार ने और आर्मी ने बड़े ही साहस और सहानुभूति के साथ बाढ़ में फंसे लोगों की सहायता की है, वो सच में प्रशंसनीय और अतुलनीय है। जनसाधारण में से ही बहुत से लोग, आपदाग्रस्त लोगों की यथायोग्य सहायता कर रहे हैं। और जो सहायता के रूप में कुछ नहीं कर पा रहे हैं वे निश्चित ही उनके कल्याण की मन ही मन प्रार्थना अवश्य कर रहे होंगे। 
हमारा भारत एक महान देश है क्योंकि यही वो देश है जहाँ विपत्ति काल में लोग सभी धर्म और जाति को भुलाकर मानवता के धर्म को सर्वोपरि रखते हैं। यहाँ की एकता सच में अवर्णनीय है।
आशा है कि हमारे देश का ये महत्वपूर्ण  हिस्सा शीघ्र ही इस संकट से उबर  जाएगा और एक बार पुनः लोग सुख और चैन का जीवन व्यतीत करेंगे। 

मेरा भारत महान 
जय हिन्द 


Wednesday, 21 October 2015


मन का रावण नहीं जलाते हैं।


हर साल जलाते रावण पर ,
मन का रावण नहीं जलाते हैं। 
हर बरस जो  होता है पैदा ,
बुराइयों को नहीं दफनाते हैं। 

घंटा मंदिर का बजा-बजा ,
नित राम को तो जगाते  हैं।
भीतर का रावण पाल सदा  ,
हम गीत ख़ुशी के गाते हैं। 

 बुराई का जब रावण दहन होगा , 
तब राम हृदय में आएँगे। 
सबकी आँखों में प्यार बन ,
वो मंद-मंद मुस्काएँगे। 

जग में होगी शांति फैली ,
न उदासी का कोई जमघट होगा।
जो मन में राम करेंगे वास , 
तो फिर बंद ये रावण दहन होगा। 


---------ऋतु अस्थाना 


Wednesday, 14 October 2015

दिलों में सब के रौशनी हो


दिलों में सब के रौशनी हो



जलाएँ दिए ऐसे, घरों में ही नहीं,
 दिलों में सब के रौशनी हो। 
 पराए दुःख को भी अपना समझना,
जो राहें दिल को दिल से जोड़नी हों। 

अँधेरा फासलों का ये बढ़ता जा रहा है ,
हर रिश्ता अब सिमटने सा लगा है। 
 मगन हैं  भरने में अपने सब सुख की झोली ,
प्यार का सागर भी अब घटने लगा है।

आपसी रंजिशों को क्यों न भुलाकर,
दिलों में प्रेम का दीपक जलाकर।
 किसी के रास्ते में गम न आए,
  करें कोशिश किसी के हम काम आऐं । 

अँधेरा और न फिर ठहर पाएगा ,
जब दिल सभी के एक होंगे। 
मिटेंगे फासले जब धर्म जाति के ,
 दिए फिर इस धरा पर कम न होंगे । 


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Monday, 12 October 2015

पानी यदि सफलता है



पानी यदि सफलता है




पानी यदि सफलता है,
    तो जीवन को उत्साह से भर लो,
     तन, मन को तुम ज्ञान से भर लो। 
   गति समय की बड़ी मतवाली ,
     कस कर समय की डोर पकड़ लो। 

जीवन डगर बड़ी ही मुश्किल ,
गीता का उपदेश समझकर,
कर्मों की पहचान है कर लो। 
लगा कर हौसलों के पंख तुम ,
सच्ची लगन की राह पकड़ लो। 

समय बड़ा ही बलशाली है ,
यूँ चुटकी में जाता है बीत,
सिखाता पल-पल हमको सीख। 
बना है  रंक कभी राजा  ,
कभी तो मांगे राजा भीख। 

सफलता उन्हीं को मिलती है,
लक्ष्य को पाने की धुन में,
जो रात-दिन एक करते हैं।  
जो सपनों में नहीं खोते,
और न किस्मत को ही रोते हैं।  


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------Ritu Asthana


Friday, 9 October 2015

कोई तो रास्ता ऐ मेरे मालिक दिखा दे।






कोई तो रास्ता ऐ मेरे मालिक दिखा दे। 






कोई तो रास्ता ऐ मेरे मालिक, दिखा दे। 
शम्मा प्रेम की  दिल में, उनके भी जला दे। 

नजर उसमें है आता, ऐ खुदा ,अब तू ही तू है । 
अब वो ही मेरी किस्मत है , मेरी वो  जुस्तजू है । 

नाम उन के जब से लिखी , ये जिंदगी है । 
होती नहीं इस दिल से , तेरी अब बंदगी है ।

दिल को चैन आता है, जब  इबादत उसकी करता हूँ। 
उसी के नाम पर जीता, नाम पर उस के ही मरता हूँ ।  

दिल के आशियाने में , रोज़ उनको बैठा कर। 
सजदा किए दिन रात, उनकी हर अदा पर।

गुनाह मैं आज ये करता हूँ, करता ही रहूँगा। 
उसी के नाम पर मरता हूँ, औ मरता ही रहूँगा। 

गुनाहों की भी सजा में,  जो भी मेरा हश्र होगा। 
कि एक रोज़ तो  पत्थर, पिघलकर  मोम  होगा। 

मंदिर का घंटा बजाऊँ, या कभी मस्जिद में जाऊँ। 
किसी भी धर्म को पूजूँ, खुदा  तुझको मनाऊँ। 

कोई तो रास्ता ऐ मेरे, मालिक दिखा दे। 
शम्मा प्रेम की  दिल मेंउनके  भी जला दे। 

कोई तो रास्ता ऐ मेरे, मालिक दिखा दे। 
शम्मा प्रेम की  दिल में , उनके  भी जला दे। 







Saturday, 3 October 2015

जादू ये कैसा छा रहा है।


जादू ये कैसा छा रहा है। 


जादू ये कैसा छा रहा है,
कोई चुपके से मन में,
 समा रहा  है।

जिसकी सूरत निगाहों से,
 हटती नहीं।
जिसकी मूरत सलोनी ,
  बिसरती  नहीं।

 किसी  रौशनी की ,
 अब है मुझको  क्या जरुरत।
जब अंधेरों में दिया बन ,
 तू जगमगा रहा है।

जादू ये कैसा छा  रहा  है,
कोई चुपके से  दिल में,
 समा रहा  है।

तड़पती आत्मा ये मेरी ,
 दर्शन को है प्यासी।    
 भर के प्रेम की मटकी , 
 खोज में वन वन भटकी।

सांवरे तू मुझमे में ही,
सदा से बसता रहा है। 
समझ ये बावला मन,
 क्यों नहीं पा रहा है।  

जादू ये कैसा छा रहा है ,
कोई चुपके से मन  में ,
 समा रहा  है।





Thursday, 1 October 2015



मत कर  पापी तू गर्भपतन।




हर घर की शान,
और होंठों की मुस्कान है, 
बेटी।

माँ के दिल का अरमान,
 औ पिता की जान है,
बेटी।

ईश्वर का दिया एक सुन्दर,
गले का हार है ,
बेटी।

माँ का दर्द समझ स्नेह का,
मलहम  लगाती  है ,
बेटी।

पिता के हौसलों को और भी, 
बुलंद बनाती है, 
बेटी।

हर एक घर को स्वर्ग सा, 
सुन्दर बनाती है, 
बेटी।

ससुराल में परायों को भी,
 अपना बनाती है, 
बेटी।

हर दर्द को चुपके से कभी,
पी जाती है 
बेटी। 

बदकिस्मत हैं जो कहते, 
कि एक बोझ है,
बेटी।

बेटी कोई बोझ नहीं,
बल्कि बोझ उठाती है,
बेटी।

  माँ सा आँचल कभी तो, 
कभी स्नेह का धागा है ,
बेटी। 

निर्मल जल की धारा सी,
हर मायके का अभिमान है.
बेटी। 

ससुराल की शान और,
एक बाबुल की पहचान है,
बेटी।

बेटी को ना बोझ समझ, 
ये तो  है अनमोल रतन। ये तेरा मान बढ़ाएंगी ,
मत कर  पापी तू गर्भपतन।

Tuesday, 29 September 2015

ये दिल मांगे मोर



सुबह से ही श्रीवास्तव जी के पेट में चूहे धमाचौकड़ी कर रहे थे। आज उन्होंने कसम खाई थी कि चाहे कुछ भी हो जाए हम अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखा करेंगे। नाश्ते में जैसे-तैसे सूखी ब्रेड चाय में डुबो डुबोकर निगली। 
जब से ये कोलेस्ट्रोल की बीमारी निकल आई है, तब से  उनकी धर्मपत्नी जी ने तो उनका टोक-टोक कर जीना मुश्किल कर दिया था। आज शाम को मित्र ने दावत पर बुलाया है। श्रीवास्तव जी तो दावत में जाने को पूरे दिल और पूरे पेट से तैयार थे बस धर्मपत्नी जी की हाँ का इन्तजार था। इसलिए वो सुबह से ही बिना नानुकुर के चुपचाप परहेजी खाना खा रहे थे। 
श्रीवास्तव जी हाल ही में रिटायर हुए थे। उन्होंने सोचा था कि सरकारी नौकरी में रात दिन एक कर दिए। ठीक से खाना पीना भी नहीं हो पाता था। अब रिटायर होने के बाद जमकर खाएंगे और खा-खा कर बाकी जीवन को सुन्दर बनाएँगे। पर हाय री किस्मत, यहाँ तो सर मुंडाते ही ओले पङ गए। अच्छे थे वो पुराने दिन जब इंसान के खाने पीने पर कोई रोक-टोक तो नहीं थी।लोग मरते-मरते भी कचौरियाँ, समोसे और पकोड़े खाते-खाते जाते थे। ये ज्यादा खोज भी ठीक नहीं है। अच्छे खासे इंसान को भूखा मार डालने के लिए पर्याप्त है।

श्रीवास्तव जी बड़े दुखी मन से अपने कमरे की खिड़की से बाहर देख रहे थे। उनकी खिड़की से उनके घर में काम करने वाली का घर दिखता था। उन्होंने देखा कि बाई ने अल्मुनियम की थाली में अपने पति को दो रोटी और थोड़ी सूखी सब्जी खाने को दी। अब श्रीवास्तव जी ध्यान से देखने लगे कि थाली में अचार है या नहीं। अब तक उनकी दूर की और पास की दोनों की ही नज़रें कमज़ोर हो चुकी थीं। सारी उदासी और कमजोरी जाने कहाँ गायब हो गई पता ही न चला।  वे फटाक से उठे और तपाक से अपना चश्मा उठा लाए। चश्मा लगाने के बाद उन्हें साफ़ दिखा कि आम के अचार की दो फांक उसकी थाली में रखी हैं जिन्हे वो बीच-बीच में बड़े स्वाद से चटखारे ले-ले कर खा रहा है। उसके मुंह का स्वाद मानो श्रीवास्तव जी स्वयं ही महसूस कर रहे थे।अचानक उनके आनंद में विघ्न पड़ गया। जाने कहाँ से श्रीमती जी आ गईं और उन्होंने पर्दा ठीक कर दिया। 

श्रीवास्तव जी चिल्लाते हुए," ये क्या तरीका है? मैं बाहर देख ही तो रहा था।  कुछ खा तो नहीं रहा था। "

श्रीमती जी ने भी उसी लहजे में जवाब दिया,"खाने को तो अब मिलेगा भी नहीं। इतना खा-खा कर ही कोलेस्ट्रोल बढ़ाया है आपने। "

अचानक श्रीवास्तव जी को शाम की दावत की बात याद आ गई। वो भीगी बिल्ली जैसे बन कर चुप हो गए। 

श्रीवास्तव जी, " देखो, मैँ तो वही खाता हूँ जो तुम देती हो। तुम्हारे हाथों में स्वाद ही इतना है कि रुखा-सूखा खाना भी पकवान बन जाता है। "

श्रीमती जी , "अच्छा??? सुबह चाय के समय की शकल से तो ऐसा नहीं लग रहा था। ये अचानक आपको क्या हो गया ?"

श्रीवास्तव जी ," अरे मुझे क्या होगा। ऐसे लगता मैं तुम्हारी पहली  बार तारीफ कर रहा हूँ, मेरी अनारकली। "
श्रीवास्तव जी ने शब्दों में चाशनी घोल ली। 
श्रीमती जी को श्रीवास्तव जी शादी के शुरू के कुछ वर्षों तक इसी नाम से पुकारते थे। तब की तो बात ही अलग थी । ऐसे नामो की एक लम्बी सूची थी। पर अब तो अपने मतलब के लिए ही प्रयोग करना पड़ता है। नहीं तो नामों की सूची तो अभी भी है लेकिन उससे उलट है बस। 

श्रीवास्तव जी अपने पलंग पर लेटते हुए ," हाँ तो क्या सोचा तुमने शाम का ?"
श्रीमती जी मुंह बनाते हुए ,"सुनिए जी, मैंने तो मना  कर दिया है। जब आप कुछ खा ही नहीं पाएंगे तो जाकर क्या फायदा ?मैं अकेले  सारे पकवान खाऊँ, ऐसे अच्छा थोड़े ही लगता है। "

श्रीवास्तव जी जैसे आसमान से गिरे। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। 

श्रीवास्तव जी थोड़ा मिमिया कर बोले, "अरे मेरी तरफ से बिलकुल निश्चिन्त रहो।  मैं कुछ नहीं खाऊंगा। इसी बहाने सब से मिलना हो जाता है। "

श्रीवास्तव जी, श्रीमती जी को ऐसे मना  रहे थे जैसे कोई बच्चा किसी आइस क्रीम  की जिद करता है। 
श्रीमती जी अलमारी में अपने कपडे ठीक कर रही थीं। वो चुपचाप अपना काम करती रहीं। 
वो भी श्रीवास्तव जी की मनःस्थिति बड़े अच्छे से समझ रही थीं। इतने सालों से जानती जो थी उनको। वो समझ रही थीं कि श्रीवास्तव जी को कौन सी चीज सबसे अधिक आकर्षित करती है। वो है स्वादिष्ट व्यंजन।
इसी बीच श्रीवास्तव जी  की आँख लग गई।

शाम को जब वो उठे तो बेड के कोने पर उन्हें अपना भूरा वाला सूट दिखाई दिया। उन्हें लगा मानो वो सपना देख रहे हों। उन्होंने अपनी आंखे मसलीं और फिर देखा। उन्हें सूट फिर भी दिखाई पड़ा। उनकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा।  आँखों के सामने सारे पकवान घूम गए। तभी श्रीमती जी का आगमन हुआ। उन्होंने तुरंत ही एक परिपक्व अभिनेता की तरह अपने मुखमंडल के हाव-भाव बदल लिए। वो एक अबोध बालक की तरह बैठ गए मानो कुछ पता ही न हो।

श्रीमती जी ," अरे आप उठ गए? मैं अभी चाय बना कर लाती हूँ। आप तब तक हाथ मुंह धो लीजिए।"
ये कहकर वो रसोई में चली गईं।
श्रीवास्तव जी ,"हुंह , चाय बना लाती हूँ? जैसे मेरा बड़ा ख्याल है इसे। इतना ही ख़याल होता तो भूखे के आगे से  निवाला न छीनती और मुझे दावत का मजा उठाने देती। "

पर मरता क्या न करता। श्रीवास्तव जी को अपनी धर्मपत्नी की बात तो माननी ही थी। दावत की कोई बात न होते देखकर वो मन मसोस कर रह गए। अपनी चाय की प्याली लेकर वो फिर से खिड़की के पास खड़े हो गए।इस बार खिड़की में से उन्हें कुछ नहीं दिखाई दिया।

श्रीमती जी अवसर का बड़ा ही आनंद उठा रही थीं।

शाम के करीब सात बजने को थे। जब खिड़की से उन्हें कुछ दिखाई न पड़ा तो वे टी वी चलाकर बैठ गए। अरे ये क्या इसमें तो खाना खजाना आ रहा है। अब तो श्रीवास्तव जी से सहन ही नहीं हो रहा था। आखिरकार उन्होंने दबी आवाज में पूछ ही लिया।

श्रीवास्तव जी ," अरी सुनती हो , रात के खाने में क्या लौकी बना रही हो? बिलकुल सादी ही बनाना। ठीक है ?"
श्रीमती जी ," जी जैसा आप कहें। "
कहकर वो मुड़ गईं। अपनी हंसी को उन्होंने बड़ी मुश्किल से रोका  हुआ था।

अचानक वो पलटीं।
श्रीवास्तव जी बोले, "क्या हुआ? कुछ कहना है क्या ?"
आशा का दामन अभी भी उन्होंने नहीं छोड़ा था।
 श्रीमती जी धीरे से सोफे पर बैठते हुए बोलीं ," सुनिए जी मैं क्या सोचती हूँ ?"
श्रीवास्तव जी का दिल बल्लियों उछलने लगा।
वो बोले ," हाँ हाँ जल्दी बताओ। क्या सोचा है तुम्हारे इस समझदार दिमाग ने?"
श्रीमती जी , " अगर वर्मा भाई साब के घर नहीं गए तो वो बुरा ना मान जाएं ?"
श्रीवास्तव जी की जान में जान आई।
वो चहक कर बोले , "बहुत बुरा मानेगा वो सच में।  मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था। पर तुम तो बिलकुल एक पुलिस वाले की तरह हो गई थी। "
श्रीमती जी मुस्कुराते हुए बोलीं ," तो अब क्या करें? चले क्या ?"
श्रीवास्तव जी का मन हुआ कि धर्मपत्नी को गोद  में उठाकर पूरे घर में घुमा लाएं पर उन्हें अपनी अत्यधिक ख़ुशी पर नियंत्रण भी तो रखना था।

श्रीवास्तव जी अपने जज्बातों पर काबू पाकर बोले ," हाँ तो ठीक है।  तुम इतना जोर दे रही हो तो चल पड़ते हैं। पर देखो मुझे वहां कुछ खाने को मत कहना।  ठीक है न ?"

वो अच्छी तरह जानते थे कि जब पत्नी जी को उन पर दया आएगी तो शायद कुछ अच्छा खाने को मिल  ही जाएगा।

दोनों पति पत्नी तैयार होकर वर्मा जी के घर दावत में पहुंचे। उन्होंने बड़ी ही गर्मजोशी से उनका स्वागत किया।

श्रीमती वर्मा, श्रीमती श्रीवास्तव को महिला मंडल में ले गईं। बस फिर क्या था ? श्रीवास्तव जी की तो पाँचों उंगलियां घी में और सर कढ़ाई में।
वर्मा जी उन्हें एक अलग से स्पेशल काउंटर पर ले गए।
वर्मा जी ," थोड़ा पीना पिलाना हो जाए। "
श्रीवास्तव जी बोले ," अरे मरवाओगे क्या? यहाँ ढंग का खाना तक नसीब नहीं है और तुम पीने की बात कर रहे हो। "
वर्मा जी बोले ," अच्छा ठीक है। चलो खाना खा लो। "
श्रीवास्तव जी ने इधेर उधर देखते हुए पूछा,"ये महिलाऐं कहाँ हैं?"
वर्मा जी बोले ,"वे सब अपने में ही मग्न हैं। चलो हम खाना खा लेते हैं पहले ही तुम देर से आए हो। "
श्रीवास्तव जी के मुंह में खाने की सुगंध से ही पानी आ रहा था। क्या करें, क्या न करें, वे समझ नहीं पा रहे थे।
श्रीवास्तव जी के लिए वर्मा जी खाने की प्लेट लगा लाए।
श्रीवास्तव जी बोले, "अरे ये तो बहुत है। इतना सारा हम नहीं खा पाएंगे। "
थोड़ा बहुत कम कर के उन्होंने डरते-डरते आखिर खाना खा ही लिया।खाना इतना स्वादिष्ट उन्हें कभी नहीं लगा था। उन्हें ऐसा लगा कि मानो मोक्ष  प्राप्त हो गया हो।
अब बारी आई मीठे की। श्रीमती जी कहीं नजर नहीं आ रही थीं सो उन्होंने एक के बजाय दो गुलाब जामुन ले लिए। बड़े ही स्वाद से उन्होंने गुलाब जामुन खाया पर ये क्या कहीं आस पास से श्रीमती जी की आवाज कानों में पड़ी।  श्रीवास्तव जी घबरा गए और गरम गरम गुलाब जामुन का एक टुकड़ा मुंह में ठूंस लिया।
गुलाब जामुन बड़े ही गरम थे पर श्रीमतीजी के सामने पकडे जाने का भय भी तो था।

श्रीमती जी बोलीं ,"सुनिए , चलिए खाना खाते हैं। "
श्रीवास्तव जी ने खाली प्लेट पास की मेज पर सरका दी पर अपने मुंह का क्या करें? मुंह चलाया तो वो समझ जाएंगी। और न चलाया तो गरम-गरम गुलाब जामुन जो मुंह में  एक लावे की तरह उबल रहा था, मुंह जला  देगा।
जैसे तैसे उन्होंने उसे  गटका ।

श्रीवास्तव जी ,"उँहू "
श्रीमती जी बोलीं ," ऊँहूँ क्या? पान वान खाए हैं क्या ? हाँ तो क्या-क्या ले आएं आपके लिए? अरे हम इतने भी कठोर नहीं है। "

ग्रीवास्तव जी के मुंह से गरम-गरम रसगुल्लों की सुगंध निकल रही था।अतः वो चुप ही रहे। श्रीमती जी कहती रहीं पर उहोने कहा हमारा कुछ भी खाने का मन नहीं है ।

घर वापस आकर श्रीमती जी ने बेड पर लेटते हुए पुछा ,"अरे आपको क्या बिलकुल भूख नहीं है?कुछ बना दूँ?"

श्रीवास्तव जी के एक बड़ी सी डकार आ गई जो कि सच्चाई बताने के लिए काफी थी।दोनों ने चुप्पी साध रखी थी। दोनों एक दुसरे की ओर पीठ कर के लेटे हुए थे।
एक ओर श्रीवास्तव जी अपनी जीत की ख़ुशी मना  रहे थे तो दूसरी ओर श्रीमती जी भी मुस्कुरा रही थीं।

श्रीवास्तव जी के मुँह से निकल ही गया ," क्या करूँ बेगम, ये दिल मांगे मोर। "
श्रीमती जी बोलीं ," जी कुछ कहा आपने ?"
श्रीवास्तव जी ," नहीं नहीं, कुछ नहीं। सो जाओ तुम।"

श्रीवास्तव जी आज के खाने का आनंद अभी भी ले रहे थे। वो सोच रहे थे कि कल से तो फिर वही रुखा सूखा खाने को मिलेगा। उन्होंने एक ठंडी  भरी और सोने का प्रयत्न करने लगे।
कल खिड़की से हो सकता है कोई नए व्यंजन के दर्शन हों।

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Thursday, 24 September 2015



 समय  ने तो बस पहिया, उल्टा घुमाया है।





 मुस्कुराते हैं हम, तो  मुस्कुराता है वो,
 गीत सदा हमारे ही तो,  गुनगुनाता है वो।

न बेटे का, न बेटी का, दोष ये सारा हमारा है,
बेटी को झिड़क कर, हमने बेटे को ही पुकारा है।

जिसका जन्म लेना भी, किसी को रास न आता है ,
हल गलत के लिए जग, क्यों उसी पर ऊँगली उठाता है।

बहू को अपनी  कभी जब,  किसी ने बेटी न माना,
सताया हर तरह से और, दिया उसे  रोज़ ताना।

और मिला  जब अंत समय में ,  वृद्धाश्रम, तो रोते हैं ,
फिर बेटो को अभिशाप देते,और बहुओं को कोसते हैं।

ये नियम जिंदगी का सदा से चलता चला आया  है ,
 समय  ने तो बस पहिया जरा उल्टा घुमाया है।




Thursday, 17 September 2015

और हम हैं यहाँ पर अकेले




और हम हैं यहाँ पर अकेले 





माना जग में दिलों के हैं मेले,

और हम हैं यहाँ पर अकेले । 


खुशबू  प्यार की हमने जो माँगी, 
रह गए बन कर हम बस सवाली। 
अश्कों के ये  लगे हैं कैसे  रेले।
खेल दिल से क्यों तुमने हैं खेले।

माना जग में दिलों के हैं मेले,
और हम हैं यहाँ पर अकेले । 

खुश रहे तू सदा दिल ये चाहे,
एक हो न सकेंगी अपनी राहें।
दर्द तू न कभी कोई झेले ,
खुशियां मेरी भी तू सारी ले ले। 

माना जग में दिलों के हैं मेले,
और हम हैं यहाँ पर अकेले । 

धङकनों  पर लिखा नाम तेरा,
मेरी रातो का है तू  सबेरा।
 है सपन तेरी बाहों में झूलें,
दर्द सारे जुदाई के भूलें। 


माना जग में दिलों के हैं मेले,
और हम हैं यहाँ पर अकेले । 


Friday, 28 August 2015

देखो तुम मत जाना भूल


देखो तुम मत जाना भूल




मेरे प्यारे नटखट भैया,
हरदम यूँ ही हँसते रहना। 

ये है कितना  प्यारा नाता ,
तुम बिन अब कुछ भी न भाता।  

तुम बिन है सूना ये आँगन ,
तुम हो तो है रक्षाबंधन। 

पढ़ लिख कर तुम बड़े बनो,
जग में ऊँचा नाम करो। 

कांटे तेरी राहों के पल में ,
सब हो जाएंगे  फूल। 

पर अपनी छोटी बहना को ,
देखो तुम मत जाना भूल। 



Saturday, 8 August 2015

आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें 



ये कहानी यू पी के एक गाँव अचलगंज की है। सिद्धनाथ अपनी पत्नी और दो लड़कों के साथ गांव में रहता था। बड़ा लड़का रामसहायक उसके साथ खेती करता था। वे दोनों धरती को अपनी माँ और खेती को उनका वरदान मानते थे। इतना श्रम करने पर भी  उनकी तंगी थी कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। प्रति वर्ष सिद्धनाथ का छोटा बेटा, सियाराम शहर से नए- नए रासायनिक उर्वरक, खाद और कीटनाशक लाता किन्तु फसल बढ़ने के बजाय, कम ही होती गई। सर पर कर्ज बढ़ता चला गया। इसी बीच सिद्धनाथ ने अपने बड़े लड़के की शादी कर दी। एक सदस्य और बढ़ गया। रामसहायक अपने बापू से सब खेती बेचकर शहर चलने की जिद करने लगा। पर वो नहीं माने।  उनका कहना था कि ये धरती हमारी माँ है, हम इसे छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। 
ऐसे ही दिन बीत रहे थे। साल भर बाद रामसहायक के एक बेटी हुई। अब तक तो घर की हालत और बिगड़ चुकी थी। 
जब रामसहायक से अपनी पत्नी और बच्ची का कष्ट देखा नहीं गया तो वो उन्हें लेकर अपने एक मित्र गोपाल के साथ कानपूर शहर आ गया। हालांकि गुजर करने के लिए उसे  एक दुकान में  चौकीदारी  का काम करना  पड़ा।उसकी पत्नी गौरी  को भी घर-घर जाकर बर्तन धोने पड़े। साल भर में उसे एक पुत्र की भी प्राप्ति हो गई। 

गांव में सिद्धनाथ अब अपने पिता के साथ खेत पर जाने लगा था। रामसहायक अपनी कमाई का कुछ भाग  गांव भेज दिया करता था। वो अब भी अपने पिता को समझाया करता था कि सब कुछ बेचकर शहर आ जाएं पर सिद्धनाथ अपने निश्चय के धनी  थे। उन्होंने गांव छोड़ना स्वीकार नहीं किया। 

रामसहायक को बेटी,राधा, कानपुर  के एक सरकारी स्कूल में पढ़ती है। वो अत्यंत ही मेधावी छात्र है। उसकी मैडम, सुनंदा को उससे बड़ी उम्मीदें हैं। 

सिद्धनाथ को गांव छोड़े लगभग कई साल हो गए थे। पर उसे अभी भी अपने गाँव की मिटटी की भीनी भीनी खुशबू की याद आती है। गांव की हरियाली,  स्वच्छ एवं ताज़ी हवा उसे बहुत प्रिय थे।उसकी आँखे अक्सर नाम हो जाती हैं। वो छुट्टियों में  कभी कभी अपने परिवार के साथ  गांव जाया करता  था।

राधा को भी अपना गांव बहुत पसंद था। उसे अपने  दादी और दादा से बहुत कुछ सीखने को मिलता था। दादी सब कुछ संभाल कर रखती थीं और उनका उचित उपयोग करती थी। उसे कभी कभी अपनी दादी की कुछ बातें अपनी टीचर की बातों से मिलती जुलती लगती थी।

  एक बार रामसहायक के पिता के मित्र ने उनसे कहा कि आजकल शहरों में लोग खेती की भी पढाई कर रहे हैं।  कहते हैं कि पढ़लिख कर ओर्गानिक  खेती करनी चाहिए जो कि किसी को नुक्सान  न करे। और इसमें पैसे भी ज्यादा मिलेंगे। राधा भी अपनी मैडम वाली बात बताती है। पर अब सवाल ये है कि कौन सीखे ?

सियाराम, गांव छोड़कर नहीं जा सकता था। तय हुआ कि रामसहायक ही सीख ले किसी तरह से। रामसहायक ने शाम का कोर्स शुरू कर दिया।और एक दिन उसे उसका प्रमाणपत्र भी मिल गया।
१२ वीं की परीक्षा देते ही राधा  ने भी आर्गेनिक फार्मिंग पढ़नी शुरू कर दी।
रामसहायक अपने भाई के साथ मिलकर छुट्टी-छुट्टी खेत का काम भी सँभालने लगा। और फिर एक दिन उसने अपने परिवार से कहा "आ अब लौट चलें " , अब वो अपनी फसल दिल्ली के आर्गेनिक मार्किट में बेचने लगे। उनका सामान उचित दामों पर बिकने कागा और धीरे धीरे उनकी पैसों की तंगी जाती रही।
    -------------------- ऋतु अस्थाना



Tuesday, 14 July 2015


 


 किया है पावन हमारा ये तुच्छ जीवन।


 संभव है बिना उनके न पूजा, न अर्चना ,
 न कोई यज्ञ और न ही कोई वंदना। 

  ये हैं साक्षात् अग्नि देव, सचमुच करामाती,
  कृपा से जिनके, जलती है सदा बाती। 

 अंत समय  में भी आते हैं जो सबके काम ,
  चिता में देते हैं इस यात्रा को चिर विराम। 

  धन्य हे! अग्नि देव तुमको शत-शत नमन ,
  तुमने किया है पावन हमारा ये तुच्छ  जीवन। 
  

Friday, 26 June 2015

जब उसने बनाया था इंसान


जब उसने बनाया था इंसान





जब उसने बनाया था इंसान ,
दिया  एक प्यारा सा उसे दिल। 
न था तब  धर्म-जाति  का भेद ,
प्रेम से रहते सब  हिल-मिल। 

इंसान ने बनाए जब धर्म अनेक ,
बची न मानवता अब शेष। 
खाक में मिला कर अपना विवेक,
बाँट दिए अपने सच्चे पिता विशेष।

क्या होगा इस धरती का अब ,
 दिन  ऐसा भी एक  आएगा । 
न मंदिर में मिलेंगे  भगवान ,
और न होंगे मस्जिद में रहमान। 






Wednesday, 24 June 2015

छोटी सी इक ख्वाहिश




छोटी सी इक ख्वाहिश

छोटी सी इक ख्वाहिश ,
 खुदा आज करता हूँ ,
दिल  किसी का न टूटे,
ऐसी दुआ करता हूँ।

मिले किस्मत में कांटे ,
पर गम नहीं ।
उनकी  राहों में कुछ फूल,
तो खिला सकता हूँ।

तेरी दहलीज पर मै सर , 
इबादत में  झुकाता हूँ। 
उसकी इबादत में  दिल क्या , 
जान भी लुटा सकता हूँ। 







Tuesday, 23 June 2015

नज़राना MNC का भाग 5




 पाँचवाँ भाग



यद्यपि सारा के माता पिता की आँखें अब तक खुल चुकी थीं ,किन्तु फिर भी रवि का हृदय उनकी ओर से टूट चुका था। वो सारा को इस दर्द , इस अपमान और सामाजिक प्रताड़ना से उबारना चाहता था पर उसे अपना आत्म सम्मान और अपने माता पिता का स्वाभिमान भी प्रिय था। रवि , सारा और उसके माता पिता के रूखे व्यवहार से आहत हो चुका था अतः वो अब सब कुछ ईश्वर के हाथों में सौंपकर , अपना मन काम में लगाने का प्रयास करता है।
सारा के माता पिता उसे भी रवि और उसके माता पिता के विषय में सारी  बातें बताते हैं। सारा भीतर से रवि से बहुत प्रभावित थी ही पर अब उसे रवि अधिक अच्छा लगने लगता है। वो अपना मन मसोस कर रह जाती है। वो सोचती है कि वो कितनी नासमझ थी कि उसने हीरे के स्थान पर एक पत्थर को चुना।

सारा की माँ , उसके रवि के प्रति लगाव को समझ जाती हैं। वो निश्चय  करती हैं कि एक बार इस सम्बन्ध के लिए पुनः प्रयास करती हूँ। पर इस बार केवल रवि से नहीं उसके माता पिता से भी ससम्मान बात करनी होगी।


सारा के माता पिता  उसे लेकर शाम को रवि के घर पहुँचते है।
रवि के माता पिता उनका खुले मन से स्वागत करते हैं।

रवि की माँ पूछती हैं , "सारा कैसी हो बेटा ? तबियत ठीक है ?"
सारा हाँ में अपना झुका हुआ सर हिलाती है। अब तक उसका पांचवा महीना लग गया था और उसका थोड़ा बहुत  पेट दिखने भी लगा था।

रवि की माँ सारा को अपने बैडरूम में ले जाती हैं। वो कहती हैं कि उसे थोड़ा आराम करना चाहिये।

बेड  पर एक ओर  रवि के माता पिता और दूसरी और रवि  की फोटो रखी हुई थी। सारा, रवि की फोटो उठा कर देखने लगती है। न जाने क्यों उसकी आँखों से स्नेह रुपी जल छलक छलक  कर बहने लगता है। वो स्वयं पर अति शर्मिंदा होती है। आज उसका हृदय सच में रवि के नाम से धड़कता है। सच्चे प्यार में कोई उंच नीच , कोई दीवार नहीं होती , उसे ये आभास होता है।


बाहर बैठक में सारा की माँ , रवि के माता पिता से कहती हैं ," मै अपने समाज में होने वाली उपेक्षा और बदनामी  के कारण नहीं अपितु इन बच्चों के प्यार के कारण , इनका रिश्ता करना चाहती हूँ।  यदि आप लोगों की  आज्ञा हो तो। "

रवि की माँ कहती हैं , " देखिये बहनजी , हमें कोई आपत्ति नहीं है पर रवि की इच्छा सर्वोपरि है।  यदि वो सहमत है और सारा सहमत है तो हमें क्या आपत्ति हो सकती है ?"

तभी रवि ऑफिस से वापस आ जाता है।  वो उनकी बातें सुन लेता है। अब तक वो सारा के माता पिता को क्षमा नहीं कर पाया था। उसे नहीं पता था कि उनके आँखों पर बंधी धन रूपी पट्टी अब तक खुल चुकी थी।

रवि अनमने स्वर से कहता है , " आप लोग क्यों इस शादी के पीछे पड़े हैं ? अच्छा, अब समझा , आपको समाज में होने वाली बदनामी की चिंन्ता है। मेरा एक सुझाव माने तो कहूँ। आप सारा के बच्चे को किसी अनाथालय में डालकर, सारा को अमेरिका भेज दीजियेगा। आप के पास तो बहुत पैसा है ना  ?  पैसों की शक्ति से आप कुछ भी खरीद सकते हैं। सारा को वहां कोई परेशानी नहीं होगी, क्योंकि वो एक मॉडर्न लड़की है। "

सारा के माता पिता दंग  रह जाते हैं। रवि उनसे ऐसा व्यव्हार करेगा उन्होंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
कमरे से सारा भी सब बातें सुन रही थी।

रवि आगे कहता है , "अच्छे अनाथालय में बच्चे की अच्छी तरह से देखभाल हो जाएगी।  आप चिंता ना करें।  हो सके तो थोड़ा चंदा अधिक दे दीजियेगा वहां पर।  एक पंथ दो काज हो जाएंगे , आप लोग  उदार हृदय भी कहलाएंगे और बच्चे से होने वाले सामाजिक अपमान से भी बचेंगे। "

रवि की माँ उसे चुप कराती हैं , " ये क्या कह रहा है तू रवि ? दूसरों के जले पर नमक छिड़कना हमने कब तुझे सिखाया बेटा ? ये कैसा व्यवहार है अतिथियों के साथ ?"

रवि आगे कहता है , " नहीं माँ ये तूने नहीं समय ने मुझे सिखाया है। और औंटीजी एक बात और , हर बच्चे की किस्मत में मेरे जैसे माता पिता नहीं होते पर फिर भी मैं प्रार्थना करूँगा की सारा के बच्चे को कोई अच्छे दंपत्ति ही गोद  लें और उसका भविष्य उज्जवल बनाएँ। "

सारा रोते हुए बाहर चली जाती है।  रवि , सारा की आँखों में छिपे दर्द और पछतावे को समझ जाता है किन्तु उसे रोकता नहीं है।  सारा के पीछे पीछे उसके माता पिता भी चले जाते हैं।  रवि के माता पिता हाथ जोड़े ही खड़े रह जाते हैं।
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रवि के माता पिता उसके इतने रूखे व्यवहार से दंग  रह जाते हैं। तब रवि उन्हें पिछली सारी  बातें बताता है।  वो बताता है कि कैसे सारा की माँ उसे धन का लालच देकर अपनी बेटी का विवाह उससे करना चाहती थीं।  और तो और उसे मध्यमवर्गीय माता पिता की संतान होने का आभास भी कराया।

रवि की माँ उसे समझती हैं कि प्रत्येक को अपनी  गलती सुधारने का एक अवसर अवश्य ही मिलना चाहिए। रवि के पिता भी उनसे पूरी तरह सहमत थे।


रवि के पिता कहते हैं , " बेटा, किसी  का भी अपमान करना अपने संस्कार नहीं हैं। तुमने उनको सही मार्ग दिखाने का जो प्रयत्न किया था , क्या पता वो सफल हो गया हो ? जब तक हम उनसे मिलकर बातचीत नहीं करेंगे हम कैसे जान पाएंगे ? मुझे तो उनका बर्ताव, अपनी बेटी के साथ बदला हुआ प्रतीत हो रहा था। बेटा किसी  भी बात को हम उम्र भर हृदय से नहीं लगा सकते। वो कहावत तो तुम्हे पता ही है ना कि " क्षमा बड़ेन  को चाहिए। "
क्षमा करने वाला सदा ही बड़ा होता है।  इसलिए पुरानी बातों को मन से निकाल कर उन्हें क्षमा कर दो। सारा से विवाह करने को मैं तुम्हे बाध्य नहीं करूँगा  ये तुंहारा अपना निर्णय है। और हम सदा तुम्हारे साथ हैं हमारे बच्चे। "


कहकर रवि के पिता ने उसे एक नन्हे बचे की तरह गले लगा लिया। उसकी माँ भी कहाँ अवसर छोड़ने वाली हैं , वो भी आकर अपने प्यारे बच्चे से लिपट जाती हैं । इतने सुन्दर और खुशहाल परिवार का वो दृश्य सही मायनो में देखने योग्य था।  सभी की आँखों से स्नेह रूपी जल निकल रहा था।

रवि स्वयं को अत्यंत गौरवान्वित समझ रहा था।  उसे अपने का  माता पिता का हर मुश्किल घडी में  यूँ  उसे सम्भालना और उचित मार्गदर्शन देना बड़ा ही अच्छा लगता है । उनकी गोद में आज भी उसे असीम सुख की प्राप्ति होती है ।

अब उसका मन अत्यंत शांत हो गया जाता है ।

शाम को ऑफिस से आते ही रवि ने कहता है कि सब लोग सारा के घर चलते हैं। वो उन सब से क्षमा माँगना चाहता हूँ। रवि के माता पिता मुस्कुराते हुए तैयार होने चले जाते हैं।


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सारा के माता पिता अब उसका पूरा ध्यान रखते हैं। अब तक जिस बच्ची को उन्होंने तनिक भी समय नहीं दिया था , अब उसे तनिक भी अकेला नहीं छोड़ते। सारा , समझ गई थी कि इतने बड़े बदलाव का श्रेय केवल और केवल रवि को ही जाता है।  वो रवि का अत्यधिक सम्मान करने  लगती है।

सारा की माँ भी अपनी बेटी के हृदय को पढ़ने का प्रयास करती हैं।

सारा की माँ , "सारा अच्छा ही हुआ जो रवि से तेरा विवाह नहीं हुआ।  तू तो उसके साथ एक पल भी न रह पाती। एक तो लड़का दिखने में भी साधारण सा है और दुसरा धन दौलत भी नहीं है उसके पास। कहाँ तू इतने ऐशो आराम में पली कोमल सी लड़की। चल हम कोई और रास्ता निकालेंगे। तू तनिक भी चिंता मत कर। "

सारा कहती है , " नहीं माँ , रवि एक बहुत ही अच्छा लड़का है।  उसने मुझे गलत रास्ते पर जाने से रोकने के अनेकों प्रयास किए किन्तु मैं अपने दम्भ में आगे बढ़ती गई। जहाँ तक प्रश्न है धन दौलत का तो लड़के में कुछ कर दिखने की ललक होनी चाहिए, जो उसमे है। और माँ वो गरीब नहीं , गरीब तो हम हैं , हमारी छोटी मानसिकता है। यदि रवि मुझे आपके कहने पर अपना लेता तो संभवतः मैं जीवन भर उसे सम्मान नहीं दे पाती। किन्तु आज मै उसकी ह्रदय से पूजा करती हूँ। माँ,  मेरे लिए चिंता ना करना।  बच्चे के जन्म के बाद मैं उसे लेकर अमरीका चली जाउंगी और उसकी एक अच्छी माँ की तरह परवरिश करुँगी। मै ये भरसक प्रयास करुँगी कि मेरा बच्चा रवि की ही तरह एक संस्कारी लड़का बने। "


कहकर सारा फफक फफक कर रोने लगती है। उसका  दम्भ, उसका अभिमान उसके आंसुओं के साथ बहने लगता है।

तभी उसे अपने कंधे पर किसी का स्पर्श प्रतीत होता है। पर ये क्या , ये तो रवि है ? माँ कहाँ चली गई ?
आंसू पोंछते हुए सारा रवि से हाथ जोड़कर नमस्ते करती है। पर अब औपचारिकता, आत्मीयता में परिणित हो चुकी थी।
रोते रोते सारा कहती है , " रवि मुझे और मेरे माता पिता को क्षमा कर देना।  हमने तुम लोगों का बड़ा हृदय दुखाया है। "

रवि मुस्कुराते हुए कहता है , "हाँ तो बच्चे को तुम मेरे जैसा बनाना चाहती हो? "
सारा सकपका जाती है। वो हकलाने लगती है।
रवि उसके पास आकर उसके मुख पर हाथ रख देता है , " बच्चे तो माता पिता की छाया  ही होते हैं पगली।  तुम अकेले नहीं हम दोनों मिलकर अपने बच्चे को एक अच्छा इंसान बनाएँगे। "

रवि उसके कान में पूछता है , " तो इस मध्यमवर्गीय लड़के की पत्नी बनोगी सारा ?"
सारा उसके मुख पर हाथ रख देती है और उससे लिपटकर जोर जोर से रोने लगती है। रवि दृढ़ता से उसे संभालता है और उसके मस्तक पर अपने निस्वार्थ प्रेम का एक चिह्न लगा देता है।

बाहर खड़े दोनों के माता पिता अपने अपने आँसू पोंछते हुए आनंदित होते हैं ।




======समाप्त===========










Thursday, 18 June 2015

नज़राना MNC का भाग 4



चौथा भाग 


सारा की माँ किसी भी प्रकार से रवि को नाराज नहीं करना चाहती थी। उन्होंने सोचा कि यदि वो इससे खुश हो जाता है तो कोई बात नहीं।  वो रवि और सारा का विवाह कर स्वयं को समाज में होने वाली बदनामी से बचाना चाहती थी। उन्हें अपनी बच्ची के दुःख का जरा भी अंदाजा नहीं था। 

रवि, सारा की माँ की आँखे खोलने की प्रतिज्ञा कर चुका था। उसका मानना था कि जिस प्रकार कुम्हार गीली मिटटी को कोई भी अकार देने में सक्षम है, उसी प्रकार  माता-पिता यदि चाहें तो बच्चे को उचित संस्कार देकर उसका जीवन संवार सकते हैं। सारा के दुःख के  उत्तरदायी निःसंदेह उसके माता पिता ही है। 

रवि भी सारा की माँ को अच्छे से पहचान गया था। वो मंद मंद मुस्कराहट के साथ सब बच्चो के साथ जमीन पर बैठा रहता है ।
सारा की माँ न चाहते हुए भी सब बच्चों को खाना परोसती हैं।
रवि बड़े आराम से खाना खाता है।
सारा की माँ उसे गहन आश्चर्य से घूरती हैं। उन्हें लगता है कि रवि अपना बड़प्पन उसे दिखाना चाहता है , इसीलिए ये सब नाटक कर रहा है।

रवि कनखियों से देखता है कि सारा की माँ ,रुमाल से अपना पसीना पोंछ  रही हैं।

रवि उनसे पूछता है ," औंटीजी , आपको कैसा लगा इन अनाथ बच्चों को अपने हाथों से खाना खिलाकर ? अधिक थकान तो नहीं हुई?"

सारा की माँ अपने मन के सुकून को छिपा न सकीं। वो बोलीं ," रवि, सच में इन मासूमो को खाना परोसकर एक अलग से सुख का अनुभव होता है। मै यहाँ कई बार आ चुकी हूँ पर आज तक इस ख़ुशी की अनुभूति  कभी नहीं हुई थी।  इसके लिए युम्हारा बहुत  बहुत धन्यवाद रवि। "

रवि मुस्कुराते हुए बोला , "सही कहा आपने आंटी जी, इन मासूम बच्चो का साथ, मानो ईश्वर का साथ हो। ऐसा ही सुख हर माँ को मिलता है। पर कुछ माँ  झूठे दिखावे और खोखली आधुनिकता की दौड़ में इस असीम सुख से वंचित  रह जाती  हैं। मुझे तरस आता है उन माँ पर। "

रवि का तीर बिलकुल निशाने पर लगा।  सारा की माँ ये सोचने पर विवश हो गई कि उनको ये सुख क्यों नहीं प्राप्त हुआ ?"

उन्होंने मन ही मन कुछ निर्णय लिया और रवि से तुरंत आज्ञा लेकर अपने घर पहुचती हैं।

सारा की माँ घर के बाहर से ही तेजी से उसे पुकारती हुई आती हैं।
सारा आश्चर्य से पुछ्ती है ," हाँ माँ , क्या हो गया ?"

सारा की माँ आते ही उसे अपने सीने से लगा लेती हैं। आज वो अपनी वर्षों की भूल को सुधारना चाहती है।
सारा की माँ उससे कहती है ," तू बिलकुल चिंता मत कर मेर्री बच्ची।  हम तेरे साथ हैं। हमारे  प्यार और ईश्वर की कृपा से सब ठीक हो जाएगा।  आज से मै  तेरा पूरा ख्याल रखूंगी। "

सारा की आँखों में सुख के आंसू आ गए।  वो अपनी माँ से यूँ लिपट गई मानो एक छोटी बच्ची को कई वर्षों पश्चात अपनी बिछड़ी हुई माँ मिली हो।

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कुछ दीनों पश्चात, रवि, सारा की माँ को फ़ोन कर एक नर्सिंग  होम में बुलाता है।  सारा की माँ आश्चर्य में पङ  जाती हैं।  पर रवि अब उन्हें सच में बहुत ही अच्छा लड़का लगने लगा था अतः वो बिना नानुकुर के अपने पति के साथ वहां  चली जाती हैं।

रवि , सारा की माँ और पिता को एक लेडी डॉक्टर से मिलवाता है।

रवि डॉक्टर से कहता है ," डॉक्टर, ये एक लोग एक बहुत ही बड़े घनवान परिवार से हैं। और औंटीजी एक  जानी मानी समाज सेविका है। आप इन्हे मेरे माता पिता के बारे में सब कुछ बता दीजिये। मै चाहता हूँ कि मेरे सम्मानीय माता पिता के बारे में ये भी सब कुछ जान ले। "

लेडी डॉक्टर पहले तो हिचकिचाती हैं।  पर रवि की जिद के आगे उनकी एक नहीं चलती है। 

डकटर कहती हैं, " रवि की माँ एक बार अपनी शादी के बाद  "बेसहारा", अनाथालय गई थी। दोनों पति पत्नी सभी बच्चों को मिठाई बाँट कर लौट ही रहे थे कि तभी एक नन्हे से बच्चे ने उनका पल्ला पकड़ लिया। उस ममतामई नारी से उस मासूम के हाथों से अपना पल्ला छुड़ाया न जा सका और वो उसे घर ले आई। और उन्होंने उस बच्चे को विधिवत गोद ले लिया। गोदी में दो वर्ष के बालक को लेकर वे मेरे पास आए थे। मेरे लाख समझने पर भी उन्होंने अपना ऑपरेशन करा लिया जिससे कि वे इस बच्चे के साथ पूरा न्याय कर सकें। कहीं वे उसेअपनी संतान होने पर  भूल न जाएं।  और वो बच्चा आज एक सुदर्शन युवक में बदल चुका है, रवि।  हाँ जी, रवि ही वो लड़का है। "

सारा की माँ की आँखें फटी की फटी रह गईं। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई इतना भी महान हो सकता है। उन्हें स्वयं पर ग्लानि हो रही थीं कि वो तो अपनी बेटी को ही अपना प्यार, दुलार और अच्छे संस्कार न दे पाई, और रवि के माता पिता ने एक अनाथ को अपना बनाकर उसे एक सुसंस्कृत इंसान बना दिया। 

डॉक्टर रवि से कहती है , " किन्तु रवि तुम्हे ये सब कैसे पता चला ?"
रवि अपनी भीगी आँखें पोछकर कहता है , "एक बार मैंने आपकी और माँ की बातें सुन ली थीं। पर मुझे तनिक भी दुःख नहीं है।  मुझे पूरा विश्वास है कि  मेरे  माता पिता, मेरे जन्मदाता से लाख गुना अच्छे हैं।  और मै इस जन्म में तो क्या अगले दस जन्मों में भी  उनका ऋण नहीं चुका  पाउँगा। "

सारा के  माता पिता  के मन में रवि के माता पिता के प्रति अपार सम्मान बढ़ जाता है।

सारा की माँ कहती हैं, " रवि हो सके तो मुझे क्षमा कर देना। तुम एक  महान माता पिता की संतान हो इसीलिए तुम्हारा व्यक्तित्व तुम्हारे सदगुणो से दमकता है। इसीलिए तुम सभी का भला चाहते हो। "

रवि कहता है, " जिस दिन आप ने मेरे माता पिता लो मध्यमवर्गीय कहकर अपमानित किया था उसी दिन से मैंने ठान लिया था कि आपकी आँखों पर बँधी धन और अभिमान की ये पट्टी तो मै खोलकर ही रहूँगा। आप पैसों का लालच देकर मुझे खरीद नहीं सकतीं। मेरे माता पिता मेरे लिए भगवान सामान हैं। और मै उनका अपमान किसी भी हालत में सहन नहीं कर सकता हूँ। "

कहकर रवि तेजी से वहां से निकल जाता है।

सारा की माँ को अपने किए पर बहुत पछतावा होता है।

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क्रमशः .........

to be continued  .........