Tuesday, 29 September 2015

ये दिल मांगे मोर



सुबह से ही श्रीवास्तव जी के पेट में चूहे धमाचौकड़ी कर रहे थे। आज उन्होंने कसम खाई थी कि चाहे कुछ भी हो जाए हम अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखा करेंगे। नाश्ते में जैसे-तैसे सूखी ब्रेड चाय में डुबो डुबोकर निगली। 
जब से ये कोलेस्ट्रोल की बीमारी निकल आई है, तब से  उनकी धर्मपत्नी जी ने तो उनका टोक-टोक कर जीना मुश्किल कर दिया था। आज शाम को मित्र ने दावत पर बुलाया है। श्रीवास्तव जी तो दावत में जाने को पूरे दिल और पूरे पेट से तैयार थे बस धर्मपत्नी जी की हाँ का इन्तजार था। इसलिए वो सुबह से ही बिना नानुकुर के चुपचाप परहेजी खाना खा रहे थे। 
श्रीवास्तव जी हाल ही में रिटायर हुए थे। उन्होंने सोचा था कि सरकारी नौकरी में रात दिन एक कर दिए। ठीक से खाना पीना भी नहीं हो पाता था। अब रिटायर होने के बाद जमकर खाएंगे और खा-खा कर बाकी जीवन को सुन्दर बनाएँगे। पर हाय री किस्मत, यहाँ तो सर मुंडाते ही ओले पङ गए। अच्छे थे वो पुराने दिन जब इंसान के खाने पीने पर कोई रोक-टोक तो नहीं थी।लोग मरते-मरते भी कचौरियाँ, समोसे और पकोड़े खाते-खाते जाते थे। ये ज्यादा खोज भी ठीक नहीं है। अच्छे खासे इंसान को भूखा मार डालने के लिए पर्याप्त है।

श्रीवास्तव जी बड़े दुखी मन से अपने कमरे की खिड़की से बाहर देख रहे थे। उनकी खिड़की से उनके घर में काम करने वाली का घर दिखता था। उन्होंने देखा कि बाई ने अल्मुनियम की थाली में अपने पति को दो रोटी और थोड़ी सूखी सब्जी खाने को दी। अब श्रीवास्तव जी ध्यान से देखने लगे कि थाली में अचार है या नहीं। अब तक उनकी दूर की और पास की दोनों की ही नज़रें कमज़ोर हो चुकी थीं। सारी उदासी और कमजोरी जाने कहाँ गायब हो गई पता ही न चला।  वे फटाक से उठे और तपाक से अपना चश्मा उठा लाए। चश्मा लगाने के बाद उन्हें साफ़ दिखा कि आम के अचार की दो फांक उसकी थाली में रखी हैं जिन्हे वो बीच-बीच में बड़े स्वाद से चटखारे ले-ले कर खा रहा है। उसके मुंह का स्वाद मानो श्रीवास्तव जी स्वयं ही महसूस कर रहे थे।अचानक उनके आनंद में विघ्न पड़ गया। जाने कहाँ से श्रीमती जी आ गईं और उन्होंने पर्दा ठीक कर दिया। 

श्रीवास्तव जी चिल्लाते हुए," ये क्या तरीका है? मैं बाहर देख ही तो रहा था।  कुछ खा तो नहीं रहा था। "

श्रीमती जी ने भी उसी लहजे में जवाब दिया,"खाने को तो अब मिलेगा भी नहीं। इतना खा-खा कर ही कोलेस्ट्रोल बढ़ाया है आपने। "

अचानक श्रीवास्तव जी को शाम की दावत की बात याद आ गई। वो भीगी बिल्ली जैसे बन कर चुप हो गए। 

श्रीवास्तव जी, " देखो, मैँ तो वही खाता हूँ जो तुम देती हो। तुम्हारे हाथों में स्वाद ही इतना है कि रुखा-सूखा खाना भी पकवान बन जाता है। "

श्रीमती जी , "अच्छा??? सुबह चाय के समय की शकल से तो ऐसा नहीं लग रहा था। ये अचानक आपको क्या हो गया ?"

श्रीवास्तव जी ," अरे मुझे क्या होगा। ऐसे लगता मैं तुम्हारी पहली  बार तारीफ कर रहा हूँ, मेरी अनारकली। "
श्रीवास्तव जी ने शब्दों में चाशनी घोल ली। 
श्रीमती जी को श्रीवास्तव जी शादी के शुरू के कुछ वर्षों तक इसी नाम से पुकारते थे। तब की तो बात ही अलग थी । ऐसे नामो की एक लम्बी सूची थी। पर अब तो अपने मतलब के लिए ही प्रयोग करना पड़ता है। नहीं तो नामों की सूची तो अभी भी है लेकिन उससे उलट है बस। 

श्रीवास्तव जी अपने पलंग पर लेटते हुए ," हाँ तो क्या सोचा तुमने शाम का ?"
श्रीमती जी मुंह बनाते हुए ,"सुनिए जी, मैंने तो मना  कर दिया है। जब आप कुछ खा ही नहीं पाएंगे तो जाकर क्या फायदा ?मैं अकेले  सारे पकवान खाऊँ, ऐसे अच्छा थोड़े ही लगता है। "

श्रीवास्तव जी जैसे आसमान से गिरे। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। 

श्रीवास्तव जी थोड़ा मिमिया कर बोले, "अरे मेरी तरफ से बिलकुल निश्चिन्त रहो।  मैं कुछ नहीं खाऊंगा। इसी बहाने सब से मिलना हो जाता है। "

श्रीवास्तव जी, श्रीमती जी को ऐसे मना  रहे थे जैसे कोई बच्चा किसी आइस क्रीम  की जिद करता है। 
श्रीमती जी अलमारी में अपने कपडे ठीक कर रही थीं। वो चुपचाप अपना काम करती रहीं। 
वो भी श्रीवास्तव जी की मनःस्थिति बड़े अच्छे से समझ रही थीं। इतने सालों से जानती जो थी उनको। वो समझ रही थीं कि श्रीवास्तव जी को कौन सी चीज सबसे अधिक आकर्षित करती है। वो है स्वादिष्ट व्यंजन।
इसी बीच श्रीवास्तव जी  की आँख लग गई।

शाम को जब वो उठे तो बेड के कोने पर उन्हें अपना भूरा वाला सूट दिखाई दिया। उन्हें लगा मानो वो सपना देख रहे हों। उन्होंने अपनी आंखे मसलीं और फिर देखा। उन्हें सूट फिर भी दिखाई पड़ा। उनकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा।  आँखों के सामने सारे पकवान घूम गए। तभी श्रीमती जी का आगमन हुआ। उन्होंने तुरंत ही एक परिपक्व अभिनेता की तरह अपने मुखमंडल के हाव-भाव बदल लिए। वो एक अबोध बालक की तरह बैठ गए मानो कुछ पता ही न हो।

श्रीमती जी ," अरे आप उठ गए? मैं अभी चाय बना कर लाती हूँ। आप तब तक हाथ मुंह धो लीजिए।"
ये कहकर वो रसोई में चली गईं।
श्रीवास्तव जी ,"हुंह , चाय बना लाती हूँ? जैसे मेरा बड़ा ख्याल है इसे। इतना ही ख़याल होता तो भूखे के आगे से  निवाला न छीनती और मुझे दावत का मजा उठाने देती। "

पर मरता क्या न करता। श्रीवास्तव जी को अपनी धर्मपत्नी की बात तो माननी ही थी। दावत की कोई बात न होते देखकर वो मन मसोस कर रह गए। अपनी चाय की प्याली लेकर वो फिर से खिड़की के पास खड़े हो गए।इस बार खिड़की में से उन्हें कुछ नहीं दिखाई दिया।

श्रीमती जी अवसर का बड़ा ही आनंद उठा रही थीं।

शाम के करीब सात बजने को थे। जब खिड़की से उन्हें कुछ दिखाई न पड़ा तो वे टी वी चलाकर बैठ गए। अरे ये क्या इसमें तो खाना खजाना आ रहा है। अब तो श्रीवास्तव जी से सहन ही नहीं हो रहा था। आखिरकार उन्होंने दबी आवाज में पूछ ही लिया।

श्रीवास्तव जी ," अरी सुनती हो , रात के खाने में क्या लौकी बना रही हो? बिलकुल सादी ही बनाना। ठीक है ?"
श्रीमती जी ," जी जैसा आप कहें। "
कहकर वो मुड़ गईं। अपनी हंसी को उन्होंने बड़ी मुश्किल से रोका  हुआ था।

अचानक वो पलटीं।
श्रीवास्तव जी बोले, "क्या हुआ? कुछ कहना है क्या ?"
आशा का दामन अभी भी उन्होंने नहीं छोड़ा था।
 श्रीमती जी धीरे से सोफे पर बैठते हुए बोलीं ," सुनिए जी मैं क्या सोचती हूँ ?"
श्रीवास्तव जी का दिल बल्लियों उछलने लगा।
वो बोले ," हाँ हाँ जल्दी बताओ। क्या सोचा है तुम्हारे इस समझदार दिमाग ने?"
श्रीमती जी , " अगर वर्मा भाई साब के घर नहीं गए तो वो बुरा ना मान जाएं ?"
श्रीवास्तव जी की जान में जान आई।
वो चहक कर बोले , "बहुत बुरा मानेगा वो सच में।  मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था। पर तुम तो बिलकुल एक पुलिस वाले की तरह हो गई थी। "
श्रीमती जी मुस्कुराते हुए बोलीं ," तो अब क्या करें? चले क्या ?"
श्रीवास्तव जी का मन हुआ कि धर्मपत्नी को गोद  में उठाकर पूरे घर में घुमा लाएं पर उन्हें अपनी अत्यधिक ख़ुशी पर नियंत्रण भी तो रखना था।

श्रीवास्तव जी अपने जज्बातों पर काबू पाकर बोले ," हाँ तो ठीक है।  तुम इतना जोर दे रही हो तो चल पड़ते हैं। पर देखो मुझे वहां कुछ खाने को मत कहना।  ठीक है न ?"

वो अच्छी तरह जानते थे कि जब पत्नी जी को उन पर दया आएगी तो शायद कुछ अच्छा खाने को मिल  ही जाएगा।

दोनों पति पत्नी तैयार होकर वर्मा जी के घर दावत में पहुंचे। उन्होंने बड़ी ही गर्मजोशी से उनका स्वागत किया।

श्रीमती वर्मा, श्रीमती श्रीवास्तव को महिला मंडल में ले गईं। बस फिर क्या था ? श्रीवास्तव जी की तो पाँचों उंगलियां घी में और सर कढ़ाई में।
वर्मा जी उन्हें एक अलग से स्पेशल काउंटर पर ले गए।
वर्मा जी ," थोड़ा पीना पिलाना हो जाए। "
श्रीवास्तव जी बोले ," अरे मरवाओगे क्या? यहाँ ढंग का खाना तक नसीब नहीं है और तुम पीने की बात कर रहे हो। "
वर्मा जी बोले ," अच्छा ठीक है। चलो खाना खा लो। "
श्रीवास्तव जी ने इधेर उधर देखते हुए पूछा,"ये महिलाऐं कहाँ हैं?"
वर्मा जी बोले ,"वे सब अपने में ही मग्न हैं। चलो हम खाना खा लेते हैं पहले ही तुम देर से आए हो। "
श्रीवास्तव जी के मुंह में खाने की सुगंध से ही पानी आ रहा था। क्या करें, क्या न करें, वे समझ नहीं पा रहे थे।
श्रीवास्तव जी के लिए वर्मा जी खाने की प्लेट लगा लाए।
श्रीवास्तव जी बोले, "अरे ये तो बहुत है। इतना सारा हम नहीं खा पाएंगे। "
थोड़ा बहुत कम कर के उन्होंने डरते-डरते आखिर खाना खा ही लिया।खाना इतना स्वादिष्ट उन्हें कभी नहीं लगा था। उन्हें ऐसा लगा कि मानो मोक्ष  प्राप्त हो गया हो।
अब बारी आई मीठे की। श्रीमती जी कहीं नजर नहीं आ रही थीं सो उन्होंने एक के बजाय दो गुलाब जामुन ले लिए। बड़े ही स्वाद से उन्होंने गुलाब जामुन खाया पर ये क्या कहीं आस पास से श्रीमती जी की आवाज कानों में पड़ी।  श्रीवास्तव जी घबरा गए और गरम गरम गुलाब जामुन का एक टुकड़ा मुंह में ठूंस लिया।
गुलाब जामुन बड़े ही गरम थे पर श्रीमतीजी के सामने पकडे जाने का भय भी तो था।

श्रीमती जी बोलीं ,"सुनिए , चलिए खाना खाते हैं। "
श्रीवास्तव जी ने खाली प्लेट पास की मेज पर सरका दी पर अपने मुंह का क्या करें? मुंह चलाया तो वो समझ जाएंगी। और न चलाया तो गरम-गरम गुलाब जामुन जो मुंह में  एक लावे की तरह उबल रहा था, मुंह जला  देगा।
जैसे तैसे उन्होंने उसे  गटका ।

श्रीवास्तव जी ,"उँहू "
श्रीमती जी बोलीं ," ऊँहूँ क्या? पान वान खाए हैं क्या ? हाँ तो क्या-क्या ले आएं आपके लिए? अरे हम इतने भी कठोर नहीं है। "

ग्रीवास्तव जी के मुंह से गरम-गरम रसगुल्लों की सुगंध निकल रही था।अतः वो चुप ही रहे। श्रीमती जी कहती रहीं पर उहोने कहा हमारा कुछ भी खाने का मन नहीं है ।

घर वापस आकर श्रीमती जी ने बेड पर लेटते हुए पुछा ,"अरे आपको क्या बिलकुल भूख नहीं है?कुछ बना दूँ?"

श्रीवास्तव जी के एक बड़ी सी डकार आ गई जो कि सच्चाई बताने के लिए काफी थी।दोनों ने चुप्पी साध रखी थी। दोनों एक दुसरे की ओर पीठ कर के लेटे हुए थे।
एक ओर श्रीवास्तव जी अपनी जीत की ख़ुशी मना  रहे थे तो दूसरी ओर श्रीमती जी भी मुस्कुरा रही थीं।

श्रीवास्तव जी के मुँह से निकल ही गया ," क्या करूँ बेगम, ये दिल मांगे मोर। "
श्रीमती जी बोलीं ," जी कुछ कहा आपने ?"
श्रीवास्तव जी ," नहीं नहीं, कुछ नहीं। सो जाओ तुम।"

श्रीवास्तव जी आज के खाने का आनंद अभी भी ले रहे थे। वो सोच रहे थे कि कल से तो फिर वही रुखा सूखा खाने को मिलेगा। उन्होंने एक ठंडी  भरी और सोने का प्रयत्न करने लगे।
कल खिड़की से हो सकता है कोई नए व्यंजन के दर्शन हों।

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