Saturday, 30 December 2017

नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाऐं

 प्यारे साथियों को ,
  नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाऐं 
                                           
हर लम्हा मायने रखता है।

लम्हों को न छोटा समझो,
हर लम्हा मायने रखता है।
इन लम्हों के ही मिलने से,
एक पूरा साल बनता है।

पल-पल प्यार को तरसें,
ये कोमल से प्यारे रिश्ते। 
क्यों एतबार को तरसें,
ये नाज़ुक से कितने रिश्ते।  

इन पलों को आ संवार लें,
 लम्हों को ज़रा निखार लें।
चल मिल बैठें दो-चार घड़ी,
अपनों को थोड़ा दुलार लें।

मिल जाएं पाँचों ऊँगली तो,

मजबूत एक हाथ बनता है।
  
मिले दिलों से दिल तो,
एक परिवार बनता है।

नमी हो रिश्तों में अगर, 
सुन्दर संसार बनता है।

इन लम्हों से ही मिलकर,
 पूरा एक साल बनता है।


नफरत का जहर मत पीना,
मर-मर के क्योंकर जीना।  
तेरा किया ही इक दिन,
तेरे सामने दिखेगा।
मिले गरीब का आशीष तो,
तू सौ बरस जिएगा।

खाते हैं आओ कसमें,
पूरी करेंगे अब हम, 
इंसानियत की रस्में।  
मासूमियत से अपनी
दुनिया के गम मिटाएँ।
बन जाएं एक दिया,
जग में प्रकाश फैलाएं

हर मोड़ पे हों खुशियाँ,
तो हर दिन त्योहार बनता है,
जिओ दूसरों की खातिर तो,
सच में इंसान बनता है।

इन लम्हों से ही मिलकर,
देखो पूरा साल बनता है।

इन लम्हों से ही मिलकर,
साथी पूरा साल बनता है ।

-----ऋतु अस्थाना 

 

Monday, 4 December 2017




फिल्म जगत  के महानायक श्री शशि कपूर जी पंचतत्वों में विलीन हो गए।  पर वो सदा अमर हैं। आज भी उनकी नटखट छवि और  मन मोहक अदा सभी को मोहित कर जाती हैं, आज भी वो दिलों के राजा साब हैं । "परदेसियों से न अँखियाँ मिलाना ", कह गए शशि जी और आज खुद परदेसी हो गए और  हमें अपनी सुनहरी यादों के सहारे छोड़ गए।  शशि जी, आप एक अमिट निशान बनकर हमारे दिलों में सदैव राज करेंगे।  हम आपको भाव-भीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।



 "हम तो झुककर सलाम करते हैं" ,
तुमको सादर प्रणाम करते  हैं।
तुमने प्यार का रास्ता दिखाया ,
है  "सत्यम शिवम् सुंदरम" बताया। 
अब होगी न "दीवार" दरम्यां कोई ,
 प्यार का  "सिलसिला" चलाया । 
"जूनून" होगा अपनेपन का और ,
दुःख का न  कोई "उत्सव" होगा। 
"जब जब फूल खिलेंगे" जग में, 
इस गुलशन को महकाएँगे 
पुराने पिटारे से यादों की 
हम तुम्हे निकाल के लाएंगे। 
तुम "कलयुग" के "विजेता" हो ,
"शान" से जिया वो "धर्मपुत्र" हो। 
शिव जी का हो "त्रिशूल" कभी ,
कभी भोलेपन का "बसेरा" हो ।
"राजा साब" हो "कभी कभी " 
इस माँ के  "नमक हलाल" कभी ,
रोता सबको तुम छोड़ चले। 
जग "बंधन कच्चे धागों" का 
तुम "पतंगा" बन तोड़ चले। 
"शर्मीली" मौत ने दस्तक दी,  
हो गया शुरु "सुहाना सफर" .
हंसकर उसे भी दुलराया 
"आ गले लग जा" कह 
उस पर  भी मुस्काया ।   
अब न बहार लौटके आएगी 
न उस तरह से गोरी शर्माएगी 
न दिल मचलेगा देख तुम्हे  
दिल का  "चोर मचाएगा शोर नहीं" . 
चिर निद्रा में सोए हो तुम 
कहा तुम जिओ अब मैं सोने चला  
अब "नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे" होंगे 
ज़बान पे हमारी फिर वही गीत पुराने होंगे।
हर ज़र्रे पे यादों के मदभरे नज़ारे होंगे  
राहों में कदम हमारे और निशान तुम्हारे होंगे। 


---ऋतु  अस्थाना 

Tuesday, 7 November 2017

KBC को प्रणाम 

भारत के सबसे अधिक लोकप्रिय रियलिटी शो "KBC" की आज विदाई हो गई। श्री अमिताभ बच्चन जी  की आवाज़ और श्री आर डी टाइलिंग जी की लेखनी द्वारा रचित KBC एक ऐतिहासिक शो है जिसका हिंदुस्तान का बच्चा-बच्चा इन्तज़ार करता है। ये पहला ऐसा शो है जिसके माध्यम से कोई भी धर्म,जाति  या बिरादरी का व्यक्ति अपनी बौद्धिक क्षमता एवं ज्ञान के सहारे अच्छी खासी धनराशि प्राप्त कर सकता है।
आज इस शो को हमने भरे दिल से और नम आँखों से विदाई दी। पर निवेदन है कि आप फिर से आएं और फिर से हर घर का टीवी आप की चमक से सुशोभित हो। बहुत बहुत आभार के साथ एक छोटी सी कविता प्रस्तुत है।

सदी के प्यारे महानायक!!
दिल बहुत भारी हो जाता है ,
आँखें जलधार बहाती हैं।
जब तुम कहते हो ख़त्म हुआ KBC ,
जान आधी रह जाती है।
जबसे तुम 9 से 10 :30 तक
 टीवी में आने लगे हो।
तब से तुम सुपर हीरो ही नहीं
हर एक दिल में छाने लगे हो।
वो 9 बजते ही सब काम काज छोड़
रिमोट को कब्ज़े में कर लेना। 
वो उत्साहित होकर हर रोज़
साथ तुम्हारे KBC
घर बैठकर खेलना।
वो कभी तुम्हारा दुखियों को
चुटकी में संभाल लेना।
कभी मन-मोहक मुस्कान से
समां  रंगीन सजा देना।
कभी अपनी मीठी बातों से
लोगों का दिल बहलाना।
तो कभी अपनी अदायगी से
हमें निहाल कर देना।
घर के एक सदस्य हो तुम
याद बहुत ही आओगे।
रहेगा हमें इंतज़ार सदा
वापस KBC में कब आओगे ?
तुम स्वस्थ रहो खुशहाल रहो
काँटा बहन जी साथ निभाएं सदा ।
कंप्यूटर जी बेचैन रहेंगे
बंद रहेगी किस्मत ताले में सदा ।
अब जो गए तो जल्दी आना तुम
न इन्तजार ज्यादा कराना तुम।
बहुतों का उद्धार किया
जीवन उनका सुधार दिया।
पर अबकी हॉट सीट पे
हमको भी बिठाना तुम
किस्मत मेरी भी
एक बार सही
पर जरूर चमकाना तुम।
जल्दी वापस आना तुम।
न ज्यादा तड़पाना तुम।
वादा जरूर निभाना तुम।
याद हमेशा आना तुम। 



----ऋतु अस्थाना






Monday, 6 November 2017

अभी तो शबनमी ओस की बरसात हुई है।






ऐ वक्त थम जा ज़रा ,
न फिसल यूँ रेत की तरह,
अभी अभी तो ज़िन्दगी से मुलाकात हुई है। 
अभी खिली दिल की कली, कुछ देर महक लूँ ज़रा ,
अभी तो शबनमी ओस की बरसात हुई है।  

ताउम्र गुज़ारी घड़ियाँ किसी के इंतज़ार में  ,
खुद से तो खुद की अभी-अभी पहचान हुई है। 
खुद पे हो जाऊँ फ़िदा कुछ देर ठहर जा ज़रा ,
अभी तो दिल के आईने से धूल कुछ साफ़ हुई है।

बेपनाह किया था प्यार उन से हमने ,
अभी तो अपनेआप से कुछ बात हुई है। 
जोड़ने  हैं टुकड़े  वजूद के गर तू साथ दे ज़रा,
अभी तो दोस्ती की नई-नई शुरुआत हुई है। 

 ऐ काश! तुझसे ही होती मोहब्बत पहली नज़र में ,
 मिट गए सारे गिले अब ख्वाहिशों की बरात हुई है। 
अब न भटकेंगे राह थाम तू लेना ज़रा ,
अभी तो निकला है दिन गुज़र रात हुई है। 

खिली है धूप कि अंधेरे छँट गए हैं सारे, 
ज़र्रे-ज़र्रे पे ज़िन्दगी की हासिल करामात हुई है । 
हसरत भरी निगाहों को रौशन हो जाने दो ज़रा, 
अभी-अभी  तो नमी से आँखें आज़ाद हुई हैं। 


------ऋतु अस्थाना 

Monday, 30 October 2017

छोटी पर ज़िद्दी जरूर हूँ मैं।

छोटी पर ज़िद्दी जरूर हूँ मैं।

इक नन्ही सी बूँद सही
छोटी पर ज़िद्दी जरूर हूँ मैं।
हिम्मत की हूँ मैं परछाईं
मेहनत का गहरा सुरूर हूँ मैं। 
कमज़ोर नहीं मैं सागर से
उसका ही प्यारा वजूद हूँ मैं।
उछलूँ  के अम्बर को छू लूँ 
खाबों का ऐसा फितूर हूँ मैं।
सागर की गोद में लहराऊँ
 हस्ती भी खोकर मगरूर हूँ मैं।
सीमाएँ कुछ हैं लांघीं पर  
मुजरिम नहीं बेकसूर हूँ मैं।

---ऋतु अस्थाना  
   

Thursday, 19 October 2017

प्रिय सदस्यों ,
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाों के साथ ये कामना है,
शुभ हो, मंगलमय हो
खुशियों का हो वास
लक्ष्मी धन वर्षा करें
गणपति विघ्नों का नाश

--ऋतु अस्थाना 

Thursday, 12 October 2017

ज़िद है हमें। 


ज़िद है हमें 
हट के अलग 
कुछ करने की। 

सहमों में हिम्मत 
भरने की।
पिछड़ों को 
राह दिखने की।  
रूठे हुओं को 
मनाने की। 
ज़िद है हमें। 

भूला है मानव 
 मानवता। 
क्योँ डर के
साए में घुट-घुट
भारत का है   
बचपन जीता।

भटकों को राह 
दिखाने की।  
गिरते हुओं 
को उठाने की।  
ज़िद है हमें। 

कहाँ गया  
वो अपनापन? 
आई कहाँ से 
हवा नई ?
एहसासों की कब 
कब्र बनी? 
 क्यों उस पे   
छलकाते हैं जाम?

आशा की 
ज्योत जलाने की।   
फिर अपना चमन 
सजाने की।   
ज़िद है हमें। 

अपने घर के 
आँगन को 
 खुशबू से फिर  
महकाने की। 
पत्थर सरीखा 
दिल हुआ 
उस पत्थर को  
 पिघलाने की।
ज़िद है हमें।  

रात बड़ी ही 
गहन सही। 
होता है  
दूर सबेरा नहीं। 
भटका है वो 
पर संभलेगा। 
एक बार को  
फिर से जागेगा।

फिर से बचपन
खेलेगा। 
फिर से कलियाँ 
मुस्काएंगी।
बादल काले 
छँट जाएँगे।  
उजला होगा फिर 
सबका मन।
 होगा ऐसा फिर 
अपना वतन।  

बंजर में फूल 
उगाने की। 
माली बन 
बाग़ सजाने की। 
हर पंछी 
 निर्भय जहाँ उड़े। 
एक ऐसा 
भारत बनाने की। 
ज़िद है हमें। 
एक ऐसा 
भारत बनाने की।  
ज़िद  है हमें। 

 ----ऋतु अस्थाना 


Monday, 9 October 2017

शाक्ति का अवतार है

शाक्ति का अवतार है 

शाक्ति का अवतार है 
नारी 
इस जीवन की 
पहचान है 
नारी। 
आँचल की छाँव 
बने कभी 
कभी निर्मल 
गंगा की धार 
है नारी। 

राधा बन 
प्यार लुटाती है 
सीता बन 
साथ निभाती है।  
विष भी अमृत 
हो जाता है 
विश्वास का अमर 
पुराण है  
नारी। 

हर पग पे चुनौती 
से जूझे  
हर मुश्किल में 
मुस्काती है 
अपनी आन 
बचाने को 
करने को रण  
तैयार है 
नारी। 

समंदर सी है 
गहराई
 पर्वत सी
रहती अडिग  
खड़ी। 
एक ओर वो     
 रानी झाँसी है 
दूजे पल 
करुणा की 
बहे नदी। 
ममता की 
मूरत है वो  
दुलार भरी  
सम्मान भरी।
 कितनी पावन 
कितनी कोमल 
 ईश्वर का 
एक वरदान है  
नारी।
 तपती रेत में 
शबनम की 
मीठी सी 
एक फुहार है
 नारी।

अबला नहीं   
वो सबला है
मन धवल 
सरीखा    
उजला है। 
डगमग करती 
इस नैया की   
कुशल सी एक  
पतवार है
नारी।  
सपने हज़ार 
हैं आँखों में 
मन में 
हैं उमंग नई।  
साहस की वो 
एक पुतली है 
सिंहों की  
एक दहाड़ है  
नारी। 
चल पड़ी है 
मस्त पवन
जैसी 
निर्भय होकर  
मतवाली सी।  
मुट्ठी में है 
किस्मत लिए 
सारी जंजीरें 
तोड़ चली।  
जीवन में रंग
 भरने को 
इस दुनिया को   
बतलाने को  
न दया करो 
न करो प्रेम 
न सहारे का 
ही दम भरो।
अब खुद लिखे 
खुद की किस्मत  
अपनी ही 
पहरेदार है 
नारी। 
----ऋतु अस्थाना 

Saturday, 7 October 2017

सुर्ख हिना कहलाऊँगी



सुर्ख मैं हिना कहलाऊँगी 

तो क्या हुआ 
जो 
शाखों से
 तोड़ी मैं जाउंगी। 
तो क्या हुआ 
जो बारीक 
मैं पीसी 
जाऊँगी। 
तो क्या हुआ 
जो गोरी 
के हाथों 
में रच 
रंग सुहाग 
का बन 
मैं जाऊँगी। 
तो क्या हुआ 
किसी के 
हाथों में 
प्यार बन 
मैं शर्म से 
इठलाऊँगी।
तो क्या हुआ 
दर्द इतना सह 
भी लिया 
आखिर तो 
दो दिलों 
को मैं मिलाऊँगी।
सौ बार 
पिसूँगी 
टूटूँगी 
रचूँगी 
तभी तो 
सुर्ख हिना मैं  
कहलाऊँगी 
       ----ऋतु अस्थाना 


         

Thursday, 5 October 2017

चाँद को क्या मालूम

चाँद है बेखबर 


चाँद है बेखबर ,
कि कोई है  
जो चाहे उसे।  
कोई पूजे  
कोई निहारे उसे।  
कोई दिल के 
हर कतरे से 
टूट कर 
माँगे तुझे। 
ये इकतरफा 
इश्क 
हर पल यूँ सताएगा। 
न मिल सकेंगे 
दो दिल 
ये  मिलन
 अधूरा ही 
रह जाएगा।   
ख़्वाबों का  
सिलसिला ये   
न थमा है 
न थमने पाएगा।   
तू मेरा हो 
न हो पर 
चाहत तो 
रहेगी सदा।   
साँसों में सांस है 
जब तलक 
हर आस ये 
कहेगी सदा।  
नाता रूहानी  
मेरा तुझसे है 
तुझसे ही रहेगा सदा ।  
तू मेरा हो न हो 
दिल ये तेरा था 
तेरा  है 
तेरा ही रहेगा सदा।  
तेरा ही रहेगा सदा। 


------ ऋतु अस्थाना 

 ज़िंदगी 


ज़िन्दगी आसान,
 होती नहीं,
बनानी ही पड़ती है। 
गम की ये टोकरी ,
सिर पे हंसकर,
उठानी ही पड़ती है। 
चुनौती कैसी भी ,
कोई भी आ जाए ।  
करो तुम सामना ,
निर्भीक होकर। 
हंसो खिलखिलाओ ,
कि अपना ही जहाँ है। 
 हर पल यूँ जियो , 
कि जैसे जीवन नया है।  
चाल हो, अंदाज़ हो। 
जीने में कुछ अलग ही ,
  कुछ बात हो। 
दिवाली हर रोज़ ,
कुछ यूँ  मनाओ। 
कि दरिया प्यार का, 
इस कदर बहाओ। 
हर तरफ प्यार की ,
बरसात हो।  
बनो दीपक कि, 
रोशन जहाँ हो ।  
तेल हो ललकार का , 
हो हिम्मत की बाती। 
होगी दूर हर मुश्किल ,
ये आस तो ,
 लगानी ही पड़ती है।  
सुबह के इंतज़ार ,
में ऐ यारा ,
रात सब्र से ,
बितानी ही पड़ती है 
ज़िन्दगी आसान,
होती नहीं ,
बनानी ही पड़ती है। 
गम की ये टोकरी, 
 सिर पे हंसकर ,
उठानी ही पड़ती है। 
गम की ये टोकरी,
 सर पे हंसकर ,
उठानी ही पड़ती है।  
         
------------ ऋतु अस्थाना 


Sunday, 1 October 2017

उस मालिक तक पहुंचाए कौन?

उस मालिक तक पहुंचाए कौन?


अर्ज़ियाँ  लिखनी हैं कई ,
उस मालिक तक पहुंचाए कौन?
ये दर्द भरी मेरी पाती,
तुझ बिन और सुनेगा कौन?

हे जग के रचनाकार सुनो,
है तुझसे  इक फ़रियाद सुनो।
या दिल न देता नारी को,
या करता उसको  एक रोबोट,

दर्द न होता सीने में,
उसमें जब गैजेट फिट होता ।
टूटने और चिटकने का,
फिर कोई  नहीं खतरा होता।  

अबला न फिर वो कहलाती,
न आँसू पलकों में भर लाती । 
न  दान कभी उसका होता,
छोटा उसे फिर समझता कौन? 

जग ने जिसको है ठुकराया,
मतलब से अपने है बहलाया। 
हाथों पर गुदवाया नाम, 
दिल के तारों को छू पाए कौन?

वो कौन सा जनम उसका होगा ,
  साँसों का न जब सौदा होगा। 
दम तेरी रचना तोड़ रही,
तोड़ेगा कब तू अपना मौन ?

माँ बन जो प्यार लुटाती है ,
दिल प्रेमी का बहलाती है। 
होती नहीं किसी से कम, 
जीरो फिर भी क्यों कहलाती है?   

मुश्किल जनम है नारी का,
एक अबला का दुखियारी का। 
घुट-घुट के क्यूँकर रोज़ जिए,
न्याय उसे दिलवाए कौन?

या रोबोट बना गैजेट लगा,
या उसको भी सम्मान दिला।  
असली कीमत उसकी जग को,
 तुझ बिन बतलाएगा कौन ?

ये दर्द भरी मेरी पाती ,
उस मालिक तक पहुँचाए कौन ? 

ये दर्द भरी मेरी पाती ,
उस मालिक तक पहुँचाए कौन ? 

---------ऋतु अस्थाना 




Friday, 29 September 2017



 होगा असली तब रावण दहन। 


हर वर्ष दहन रावण होता,
हर्ष से मन पुलकित होता। 
होती सत्य की विजय सदा ,
पाठ यही प्रचलित होता। 

भीतर का सच सबको है पता ,
वो भीतर ही दुबका होता। 
यदि बाहर आ जाए कहीं ,
मुख रावण सा सबका होता। 

राम का धवल मुखौटा पहन ,
जीते सब ही हैं रावण बन । 
हर पल सिसकती सीता यहाँ ,
हर पल हरण उसका होता। 

जब तक न पतन हो पापों का,
झूठों का और मक्कारों  का। 
हर वर्ष  जलाओ रावण पर  ,
जीवित वो अगले ही पल होता। 

चल अपनेपन की ज्योत जला,
फूँके सब अपना कलुषित मन। 
दिखेंगे चहुँओर राम ही राम ,
होगा असली तब रावण दहन। 

होगा असली तब रावण दहन। 

                                                                       -------ऋतु अस्थाना 

Thursday, 28 September 2017

चलो चलें उस ओर चलें।

चलो चलें उस ओर चलें।  


चलो चलें उस ओर चलें।  
जहाँ आशाओं के दीप जलें।  

सपनों का जहाँ बिछौना हो,
उम्मीदों की चादर ताने ,
दिल दरिया बन बेधड़क बहें,
जहाँ तारों की बारात चले। 

मुट्ठी में सूरज भरने को,
बादल पर ऐसे पाँव चलें। 
चलो चलें उस ओर चलें।  
जहाँ आशाओं के दीप जलें।  


ये ज़िद है हार ना मानेंगे,
मुश्किल को धूल चटा देंगे।   
गर नहीं लकीर है हाथों में ,
तो खुद किस्मत चमका देंगे।   

बंजर में फूल खिलाने को ,
पलकों में सपनें लाख पलें। 
चलो चलें उस ओर चलें।  
जहाँ आशाओं के दीप जलें।  

तूफानों की परवाह नहीं ,
नदिया की बेसुध धार नहीं।
रस्ते भले ही मुश्किल हों,
मानेंगे हर्गिज़ हार नहीं।  

हिम्मत अपनी को देख-देख ,
देखो दिल पत्थर का पिघले।  
चलो चलें उस ओर चलें।  
जहाँ आशाओं के दीप जलें।  


जोश को हम पहचान बना लें ,
उम्मीदों को ढाल बना लें।  
ऊंचे पर्वत गहरी है खाई ,
चल अपने रस्ते आप बना लें। 

अपनी मेहनत के बल चल।
मायूसी का रंग बदल लें।   
चलो चलें उस ओर चलें।  
जहाँ आशाओं के दीप जलें।  

 ----ऋतु अस्थाना 

Monday, 25 September 2017

भिखारी कौन?



पश्चात्ताप यानि ग्लानि। कौन नहीं परिचित होगा इस भाव से? पर अपने अहम् यानि ईगो के कारण हम उसे  भीतर ही भीतर दबा देते हैं।  हमारी अंतरात्मा हमें बार-बार सही गलत का एहसास कराती रहती है पर मजाल है जो हम अपने कान पे जूँ भी रेंगने दें। कोई न कोई बहाना देकर हम खुद को ही सही घोषित कर देते हैं।  आए दिन हमारे साथ ऐसे किस्से होते ही रहते हैं।  पर हम कहाँ छोटी-छोटी बातों पर गौर करते हैं। हम तो भई बस बड़ी पिक्चर देखने के आदी हैं।  कुछ  बड़ा काम जैसे मंदिर में सोने का छत्र चढ़ाना, अनाथालय में बड़ी रकम देना ये सब  करेंगे। क्योंकि इसके दो फायदे हैं एक तो दुनिया में कुछ नाम कमाएंगे और दूसरे स्वर्ग के द्वार खुद ब खुद हम पर खुल जाएंगे।   इन्ही सब कारणों के चलते हम रोजमर्रा की ज़िन्दगी से दान, दया, प्रेम और स्नेह को निकाल कर ताक पर रख देते हैं।  अरे भाई जब एक बार इतना बड़ा काम कर दिया तो फिर क्यों रोज रोज उन्ही सब चक्करों में पड़ना?

 दूसरों की क्या कहूँ , अपने ही जीवन की एक घटना आपको सुनाती हूँ।
कुछ दिनों पहले की ही एक घटना है।  मैं अपनी नौकरी के लिए मेट्रो स्टेशन जा रही थी।  रोज की तरह मैं ट्रेन  न छूट जाए, इस डर से जल्दी जल्दी कदम बढ़ा रही थी।  बार-बार घडी देख रही थी कि कहीं देर ना हो जाए। तभी फुटपाथ से जाते हुए कोने में बैठे एक भिखारी पर मेरी नज़र पड़ी। उसकी लाचार हालत देख मुझे बड़ा दुःख हुआ। पर करती भी क्या, नई  नौकरी  की चिंता में मैं फर्राटे से निकलकर अपनी ट्रेन में जा बैठी।  दिन भर ऑफिस के कामों में मैं उस घटना को लगभग भूल ही गई।
अगले कुछ दिनों तक यही हुआ।  मैं कर भी क्या सकती हूँ, यही सोचकर मैंने इस बात को बड़े ही हलके में ले लिया।
ऊपर से तो मैंने मन को समझा लिया था पर भीतर से वो मुझे बार-बार कचोटता था।  बार-बार यही लगता था कि मैंने उसके लिए कुछ भी नहीं किया। आज फिर वही हुआ हुआ।  न चाहते हुए भी उस भिखारी पर फिर से मेरी नज़र पड़ गई, जो बिना किसी भाव-भंगिमा  के एक अबोध बालक की तरह वहां बैठा हुआ था।  जिसे उसके पेट ने और उसकी लम्बी ज़िन्दगी ने लाचार बना दिया था।  उसकी आँखों का दर्द इतना भीषण था कि मैं भीतर तक हिल गई।  मैंने  मन ही मन प्रण कर लिया कि कल मैं जरूर उसके लिए खाने को कुछ लाऊंगी।  ज्यादा नहीं पर इतना तो कर ही सकती हूँ मैं।  उस दिन मन को बड़ा ही सुकून मिला।  केवल कुछ अच्छा करने मात्र के ख्याल से मेरी आत्मा को बड़ा सुख मिला। सोचा कि कल जब उसे खाना दूंगी तब तो खुद पर नाज़  ही करुँगी, कि  किसी भिखारी का पेट मैंने  भरा, मैंने । 
यही सब सोचते हुए मैं ऑफिस से वापस घर पहुंची और रात को सबको खाना-वाना खिलाकर जब खुद सोने चली  फिर उस भिखारी का चेहरा मेरी आँखों के आगे एक बार फिर घूम गया। मैंने मन ही मन खुद को शाबाशी दी कि चलो मैं एक अच्छा  और पुण्य का काम करने  जा रही हूँ।  यही सब सोचते सोचते कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला।
रात भर इसी उहापोह में रही कि अब, जब मैं कुछ बना कर ले जा रही हूँ तो  कहीं ऐसा न हो कि वो कल आए ही नहीं। और अगर ऐसा हुआ तो मेरा खाना तो बेकार हो जाएगा।  
खैर किसी तरह सुबह हुई और मैं नहा-धोकर किचन में आई और फटाफट बेटी और हस्बैंड का नाश्ता बना दिया। बेटी को स्कूल भेजकर जब मैं थोड़ी फ्री हुई तो सोचा कि अब उस भिखारी के लिए भी कुछ बना लेती हूँ।  अब सवाल ये था कि उसके लिए क्या बनाऊं? रोटी, पराठा या सैंडविच ? तभी देखा कि फ्रिज में ब्रेड पड़ी है जिसकी एक्सपायरी डेट भी आज की ही है।  बस फिर क्या था।  तुरंत फाइनल कर लिया कि अब तो सैंडविच ही पक्का ।  कुशल गृहिणी के दिमाग ने क्या खूब काम किया। मैंने फटाफट ब्रेड निकाली और झटपट भिखारी के लिए दो सैंडविच बना लिए। खुद तो मैं नाश्ते में कुछ हल्का ही लेती हूँ।
हाँ तो उसके सैंडविच पैक कर के मैंने अपने बैग में रख लिए जिससे कि भूल न जाऊं।
इंसान का मन भी बड़े ही कमाल की चीज़ है जनाब। अभी कुछ किया भी नहीं था पर कुछ करने का घमंड था कि पहले ही सिर चढ़कर बोलने लगा। और मैं खुद को बड़ा ही तीस मारखां समझने लगी।  अरे, कौन करता है किसी के लिए इतना सब ? देसी घी में सैंडविच बनाना वो भी एक भिखारी के लिए, ये सबके बस की बात थोड़े ही है।और तभी दूसरे ही पल एक दूसरे ख्याल ने मुझे  धर दबोचा। वो ये कि अगर आज वो नहीं मिला तो? तो कौन  खाएगा ये सैंडविच? मैं तो अपना खाना अलग से लाई हूँ। फिर मैंने अपने उन बेवजह के ख्यालों को झटक दिया। सोचा कि आखिर वो भिखारी ही है न, कहाँ जाएगा, वहीँ होगा। 
अब मैं चलते-चलते उसी जगह आ पहुंची थी, जहाँ वो रोज बैठा करता था।  पर ये क्या? वो तो आज  वहां था ही नहीं।  सोचा, हो सकता है, थोड़ा आगे बैठा हो।  पर रास्ता ख़तम होने को था पर वो नदारद था। आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था। अब ये सैंडविच कौन खाएगा, यही सोच सोचकर मेरा दिमाग फटने लगा। वैसे चाहे कितना ही खाना रोज़ फिंक जाता हो पर आज के खाने में तो कुछ अलग ही बात थी।  तभी एक आशा की किरण सी चमकी। आगे ही कुछ दूरी पर एक और भिखारी सफ़ेद कपड़ों में बैठा हुआ दिखाई पड़ा। मैंने राहत की सांस ली।  सोचा चलो मेरी मेहनत  बर्बाद तो नहीं जाएगी।मन को समझाया कि कोई बात नहीं, पुण्य तो आखिर पुण्य ही है।और भिखारी तो भिखारी ही है। वो न सही दूसरा भिखारी सही। मैं बड़ी ख़ुशी और घमंड से आगे बढ़ी और बैग खोलकर उसमें से सैंडविच निकाला और उसे देने को झुकी। पर उसने नाक मुँह बनाते हुए पूछा, "खाना है ?" मैंने शान से कहा ," हाँ बाबा "। उसने सिर हिलाते हुए साफ़ मना कर दिया। उसने कहा," खाना तो है मेरे पास।"   फिर बड़ी बेरुखी से उसने हाथ के इशारे से मुझे जाने को कहा।  मुझे बड़ा ही बुरा लगा।  मन ही मन सोचा कि अब ज़िन्दगी में कभी कुछ नहीं करुँगी इन भिखारियों के लिए।सच में, बड़े दिमाग ख़राब हैं इन भिखारियों ।
खैर, खाना मैंने वापस अपने बैग में वापिस रख लिया। और सुस्त क़दमों से अपनी ट्रेन  में जा बैठी। इतना बुरा, इतना अपमानित तो आज तक मुझे कभी नहीं लगा।
चूँकि मेरी आदत है, आत्मनिरीक्षण करने की।  तो मैं पूरे रास्ते वही करती रही। कुछ ही देर में मैं समझ गई कि मैं कहाँ गलत थी। मैंने उसकी मदद तो करनी चाही पर तब नहीं जब उसे मेरी बहुत जरुरत थी बल्कि तब जब मुझे सहूलियत थी। उसमें भी ये सोचा कि जो चीज़ कल मैं कूड़े में फेंक दूंगी, वो फेंकने के बजाय उसी को दे देती हूँ।  और उस पर भी इतना घमंड, जो ईश्वर ने पल चकनाचूर कर दिया था।उस अपमान ने बड़ा ही आहत किया मुझे।  बहुत समय लगा मुझे उस घटना को भूलने में।
एक बार फिर मैं अपने घर और ऑफिस में इतना व्यस्त हो गई कि ये सारी बातें भूल गई।
कुछ दिनों बाद, उस दिन फिर सुबह मैं ऑफिस जा रही थी। जल्दबाज़ी में रास्ते में मेरा पैर कुछ यूँ मुड़ा कि दर्द से मेरी चीख ही निकल गई और इतना ही नहीं मेरी सैंडल भी टूट गई। दर्द के मारे मैं तड़प उठी और फुटपाथ पर ही बैठ गई। आँखों से आंसू खुद ब खुद छलक पड़े। तभी देखा कि मैं तो उसी भिखारी के बगल में बैठी हुई हूँ। मैं जल्दी से उठने को हुई तो उसने कहा,"बेटी, ये क्रीम लगा लो, दर्द ठीक हो जाएगा।" अब फिर वही ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, पल भर में न जाने क्या-क्या मन में आया। मैंने इशारे से मना किया, कहा कि, ठीक हूँ।  पर ये क्या मैं तो उठ भी नहीं पा रही थी। उसने ज़िद करके मेरे पैर में न केवल मलहम लगाया बल्कि एक पानी की बोतल भी खरीद लाया। आज मैं खुद को इतना बौना महसूस कर रही थी कि चाहकर भी उसे पैसे नहीं दे पाई।   कुछ देर में दर्द में जब कुछ आराम आया तो मैं चलने को हुई। पर टूटी सैंडल से चलती भी कैसे। अपनी सैंडल को जोड़ने की  करने लगी।  तभी देखा, उसने अपने मैले कुचैले झोले में से एक जोड़ी साफ सुथरी नई चप्पलें निकालीं और मेरे पैरों के आगे रख दी।  मैं तो पहले ही शर्म से गड़ी जा रही थी और वो भिखारी था कि उपकार पे उपकार किए जा रहा था। क्या करूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा था। बदरपुर मेट्रो स्टेशन के पास कोई चप्पल की दुकान भी नहीं थी।  ऑफिस को भी देर हो रही थी। उसने मेरे असमंजस को भी शायद समझ लिया और बोला," जाइये देर हो रही है।" पर मेरा दिमाग अभी भी बेचैन था कि आखिर ये नई चप्पल इसके पास आई कहाँ से ? और उससे भी बड़ा सवाल ये था कि भिखारी होकर भी उसने बिना कुछ सोचे-समझे अपनी नई चप्पलें मुझे दे दी।  उसने उस वक्त मेरी मदद की जब मुझे उसकी मदद की सख्त जरुरत थी। यूँ तो सैकड़ों लोग आस-पास से गुज़र रहे थे पर कहाँ है किसी के पास इतना समय जो किसी दूसरे का दुःख समझ सके। 
मैंने उसे धन्यवाद दिया और मन से उसकी चप्पल पहनी। और पछतावे के आंसू बहाते हुए अपनी ट्रेन की ओर बढ़ चली।  
आज भिखारी वो नहीं था, मैं थी। किसी के सहारे की, किसी की दया की, किसी के उपकार की भीख की आज मुझे सख्त जरुरत थी। उसने, जिसे मैंने हमेशा छोटा समझा, गरीब समझा, वो तो दिल का बड़ा ही अमीर निकला, दिल खोलकर उसने मेरी मदद की।
आज जब फिर आत्मनिरीक्षण किया तो समझ आया कि भिखारी कौन नहीं है यहाँ? असल में हम सभी भिखारी हैं। हम भिखारी हैं प्यार के, सम्मान के, अपनेपन के, वक्त की रहमत के और हाथों की लकीरों के ।  हम सब भिखारी हैं यहाँ। भिखारी कौन नहीं?                         
                  



                                                 --------ऋतु अस्थाना