Thursday, 12 October 2017

ज़िद है हमें। 


ज़िद है हमें 
हट के अलग 
कुछ करने की। 

सहमों में हिम्मत 
भरने की।
पिछड़ों को 
राह दिखने की।  
रूठे हुओं को 
मनाने की। 
ज़िद है हमें। 

भूला है मानव 
 मानवता। 
क्योँ डर के
साए में घुट-घुट
भारत का है   
बचपन जीता।

भटकों को राह 
दिखाने की।  
गिरते हुओं 
को उठाने की।  
ज़िद है हमें। 

कहाँ गया  
वो अपनापन? 
आई कहाँ से 
हवा नई ?
एहसासों की कब 
कब्र बनी? 
 क्यों उस पे   
छलकाते हैं जाम?

आशा की 
ज्योत जलाने की।   
फिर अपना चमन 
सजाने की।   
ज़िद है हमें। 

अपने घर के 
आँगन को 
 खुशबू से फिर  
महकाने की। 
पत्थर सरीखा 
दिल हुआ 
उस पत्थर को  
 पिघलाने की।
ज़िद है हमें।  

रात बड़ी ही 
गहन सही। 
होता है  
दूर सबेरा नहीं। 
भटका है वो 
पर संभलेगा। 
एक बार को  
फिर से जागेगा।

फिर से बचपन
खेलेगा। 
फिर से कलियाँ 
मुस्काएंगी।
बादल काले 
छँट जाएँगे।  
उजला होगा फिर 
सबका मन।
 होगा ऐसा फिर 
अपना वतन।  

बंजर में फूल 
उगाने की। 
माली बन 
बाग़ सजाने की। 
हर पंछी 
 निर्भय जहाँ उड़े। 
एक ऐसा 
भारत बनाने की। 
ज़िद है हमें। 
एक ऐसा 
भारत बनाने की।  
ज़िद  है हमें। 

 ----ऋतु अस्थाना 


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