भिखारी कौन?
पश्चात्ताप यानि ग्लानि। कौन नहीं परिचित होगा इस भाव से? पर अपने अहम् यानि ईगो के कारण हम उसे भीतर ही भीतर दबा देते हैं। हमारी अंतरात्मा हमें बार-बार सही गलत का एहसास कराती रहती है पर मजाल है जो हम अपने कान पे जूँ भी रेंगने दें। कोई न कोई बहाना देकर हम खुद को ही सही घोषित कर देते हैं। आए दिन हमारे साथ ऐसे किस्से होते ही रहते हैं। पर हम कहाँ छोटी-छोटी बातों पर गौर करते हैं। हम तो भई बस बड़ी पिक्चर देखने के आदी हैं। कुछ बड़ा काम जैसे मंदिर में सोने का छत्र चढ़ाना, अनाथालय में बड़ी रकम देना ये सब करेंगे। क्योंकि इसके दो फायदे हैं एक तो दुनिया में कुछ नाम कमाएंगे और दूसरे स्वर्ग के द्वार खुद ब खुद हम पर खुल जाएंगे। इन्ही सब कारणों के चलते हम रोजमर्रा की ज़िन्दगी से दान, दया, प्रेम और स्नेह को निकाल कर ताक पर रख देते हैं। अरे भाई जब एक बार इतना बड़ा काम कर दिया तो फिर क्यों रोज रोज उन्ही सब चक्करों में पड़ना?
दूसरों की क्या कहूँ , अपने ही जीवन की एक घटना आपको सुनाती हूँ।
कुछ दिनों पहले की ही एक घटना है। मैं अपनी नौकरी के लिए मेट्रो स्टेशन जा रही थी। रोज की तरह मैं ट्रेन न छूट जाए, इस डर से जल्दी जल्दी कदम बढ़ा रही थी। बार-बार घडी देख रही थी कि कहीं देर ना हो जाए। तभी फुटपाथ से जाते हुए कोने में बैठे एक भिखारी पर मेरी नज़र पड़ी। उसकी लाचार हालत देख मुझे बड़ा दुःख हुआ। पर करती भी क्या, नई नौकरी की चिंता में मैं फर्राटे से निकलकर अपनी ट्रेन में जा बैठी। दिन भर ऑफिस के कामों में मैं उस घटना को लगभग भूल ही गई।
अगले कुछ दिनों तक यही हुआ। मैं कर भी क्या सकती हूँ, यही सोचकर मैंने इस बात को बड़े ही हलके में ले लिया।
ऊपर से तो मैंने मन को समझा लिया था पर भीतर से वो मुझे बार-बार कचोटता था। बार-बार यही लगता था कि मैंने उसके लिए कुछ भी नहीं किया। आज फिर वही हुआ हुआ। न चाहते हुए भी उस भिखारी पर फिर से मेरी नज़र पड़ गई, जो बिना किसी भाव-भंगिमा के एक अबोध बालक की तरह वहां बैठा हुआ था। जिसे उसके पेट ने और उसकी लम्बी ज़िन्दगी ने लाचार बना दिया था। उसकी आँखों का दर्द इतना भीषण था कि मैं भीतर तक हिल गई। मैंने मन ही मन प्रण कर लिया कि कल मैं जरूर उसके लिए खाने को कुछ लाऊंगी। ज्यादा नहीं पर इतना तो कर ही सकती हूँ मैं। उस दिन मन को बड़ा ही सुकून मिला। केवल कुछ अच्छा करने मात्र के ख्याल से मेरी आत्मा को बड़ा सुख मिला। सोचा कि कल जब उसे खाना दूंगी तब तो खुद पर नाज़ ही करुँगी, कि किसी भिखारी का पेट मैंने भरा, मैंने ।
यही सब सोचते हुए मैं ऑफिस से वापस घर पहुंची और रात को सबको खाना-वाना खिलाकर जब खुद सोने चली फिर उस भिखारी का चेहरा मेरी आँखों के आगे एक बार फिर घूम गया। मैंने मन ही मन खुद को शाबाशी दी कि चलो मैं एक अच्छा और पुण्य का काम करने जा रही हूँ। यही सब सोचते सोचते कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला।
रात भर इसी उहापोह में रही कि अब, जब मैं कुछ बना कर ले जा रही हूँ तो कहीं ऐसा न हो कि वो कल आए ही नहीं। और अगर ऐसा हुआ तो मेरा खाना तो बेकार हो जाएगा।
खैर किसी तरह सुबह हुई और मैं नहा-धोकर किचन में आई और फटाफट बेटी और हस्बैंड का नाश्ता बना दिया। बेटी को स्कूल भेजकर जब मैं थोड़ी फ्री हुई तो सोचा कि अब उस भिखारी के लिए भी कुछ बना लेती हूँ। अब सवाल ये था कि उसके लिए क्या बनाऊं? रोटी, पराठा या सैंडविच ? तभी देखा कि फ्रिज में ब्रेड पड़ी है जिसकी एक्सपायरी डेट भी आज की ही है। बस फिर क्या था। तुरंत फाइनल कर लिया कि अब तो सैंडविच ही पक्का । कुशल गृहिणी के दिमाग ने क्या खूब काम किया। मैंने फटाफट ब्रेड निकाली और झटपट भिखारी के लिए दो सैंडविच बना लिए। खुद तो मैं नाश्ते में कुछ हल्का ही लेती हूँ।
हाँ तो उसके सैंडविच पैक कर के मैंने अपने बैग में रख लिए जिससे कि भूल न जाऊं।
खैर किसी तरह सुबह हुई और मैं नहा-धोकर किचन में आई और फटाफट बेटी और हस्बैंड का नाश्ता बना दिया। बेटी को स्कूल भेजकर जब मैं थोड़ी फ्री हुई तो सोचा कि अब उस भिखारी के लिए भी कुछ बना लेती हूँ। अब सवाल ये था कि उसके लिए क्या बनाऊं? रोटी, पराठा या सैंडविच ? तभी देखा कि फ्रिज में ब्रेड पड़ी है जिसकी एक्सपायरी डेट भी आज की ही है। बस फिर क्या था। तुरंत फाइनल कर लिया कि अब तो सैंडविच ही पक्का । कुशल गृहिणी के दिमाग ने क्या खूब काम किया। मैंने फटाफट ब्रेड निकाली और झटपट भिखारी के लिए दो सैंडविच बना लिए। खुद तो मैं नाश्ते में कुछ हल्का ही लेती हूँ।
हाँ तो उसके सैंडविच पैक कर के मैंने अपने बैग में रख लिए जिससे कि भूल न जाऊं।
इंसान का मन भी बड़े ही कमाल की चीज़ है जनाब। अभी कुछ किया भी नहीं था पर कुछ करने का घमंड था कि पहले ही सिर चढ़कर बोलने लगा। और मैं खुद को बड़ा ही तीस मारखां समझने लगी। अरे, कौन करता है किसी के लिए इतना सब ? देसी घी में सैंडविच बनाना वो भी एक भिखारी के लिए, ये सबके बस की बात थोड़े ही है।और तभी दूसरे ही पल एक दूसरे ख्याल ने मुझे धर दबोचा। वो ये कि अगर आज वो नहीं मिला तो? तो कौन खाएगा ये सैंडविच? मैं तो अपना खाना अलग से लाई हूँ। फिर मैंने अपने उन बेवजह के ख्यालों को झटक दिया। सोचा कि आखिर वो भिखारी ही है न, कहाँ जाएगा, वहीँ होगा।
अब मैं चलते-चलते उसी जगह आ पहुंची थी, जहाँ वो रोज बैठा करता था। पर ये क्या? वो तो आज वहां था ही नहीं। सोचा, हो सकता है, थोड़ा आगे बैठा हो। पर रास्ता ख़तम होने को था पर वो नदारद था। आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था। अब ये सैंडविच कौन खाएगा, यही सोच सोचकर मेरा दिमाग फटने लगा। वैसे चाहे कितना ही खाना रोज़ फिंक जाता हो पर आज के खाने में तो कुछ अलग ही बात थी। तभी एक आशा की किरण सी चमकी। आगे ही कुछ दूरी पर एक और भिखारी सफ़ेद कपड़ों में बैठा हुआ दिखाई पड़ा। मैंने राहत की सांस ली। सोचा चलो मेरी मेहनत बर्बाद तो नहीं जाएगी।मन को समझाया कि कोई बात नहीं, पुण्य तो आखिर पुण्य ही है।और भिखारी तो भिखारी ही है। वो न सही दूसरा भिखारी सही। मैं बड़ी ख़ुशी और घमंड से आगे बढ़ी और बैग खोलकर उसमें से सैंडविच निकाला और उसे देने को झुकी। पर उसने नाक मुँह बनाते हुए पूछा, "खाना है ?" मैंने शान से कहा ," हाँ बाबा "। उसने सिर हिलाते हुए साफ़ मना कर दिया। उसने कहा," खाना तो है मेरे पास।" फिर बड़ी बेरुखी से उसने हाथ के इशारे से मुझे जाने को कहा। मुझे बड़ा ही बुरा लगा। मन ही मन सोचा कि अब ज़िन्दगी में कभी कुछ नहीं करुँगी इन भिखारियों के लिए।सच में, बड़े दिमाग ख़राब हैं इन भिखारियों ।
खैर, खाना मैंने वापस अपने बैग में वापिस रख लिया। और सुस्त क़दमों से अपनी ट्रेन में जा बैठी। इतना बुरा, इतना अपमानित तो आज तक मुझे कभी नहीं लगा।
चूँकि मेरी आदत है, आत्मनिरीक्षण करने की। तो मैं पूरे रास्ते वही करती रही। कुछ ही देर में मैं समझ गई कि मैं कहाँ गलत थी। मैंने उसकी मदद तो करनी चाही पर तब नहीं जब उसे मेरी बहुत जरुरत थी बल्कि तब जब मुझे सहूलियत थी। उसमें भी ये सोचा कि जो चीज़ कल मैं कूड़े में फेंक दूंगी, वो फेंकने के बजाय उसी को दे देती हूँ। और उस पर भी इतना घमंड, जो ईश्वर ने पल चकनाचूर कर दिया था।उस अपमान ने बड़ा ही आहत किया मुझे। बहुत समय लगा मुझे उस घटना को भूलने में।
एक बार फिर मैं अपने घर और ऑफिस में इतना व्यस्त हो गई कि ये सारी बातें भूल गई।
कुछ दिनों बाद, उस दिन फिर सुबह मैं ऑफिस जा रही थी। जल्दबाज़ी में रास्ते में मेरा पैर कुछ यूँ मुड़ा कि दर्द से मेरी चीख ही निकल गई और इतना ही नहीं मेरी सैंडल भी टूट गई। दर्द के मारे मैं तड़प उठी और फुटपाथ पर ही बैठ गई। आँखों से आंसू खुद ब खुद छलक पड़े। तभी देखा कि मैं तो उसी भिखारी के बगल में बैठी हुई हूँ। मैं जल्दी से उठने को हुई तो उसने कहा,"बेटी, ये क्रीम लगा लो, दर्द ठीक हो जाएगा।" अब फिर वही ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, पल भर में न जाने क्या-क्या मन में आया। मैंने इशारे से मना किया, कहा कि, ठीक हूँ। पर ये क्या मैं तो उठ भी नहीं पा रही थी। उसने ज़िद करके मेरे पैर में न केवल मलहम लगाया बल्कि एक पानी की बोतल भी खरीद लाया। आज मैं खुद को इतना बौना महसूस कर रही थी कि चाहकर भी उसे पैसे नहीं दे पाई। कुछ देर में दर्द में जब कुछ आराम आया तो मैं चलने को हुई। पर टूटी सैंडल से चलती भी कैसे। अपनी सैंडल को जोड़ने की करने लगी। तभी देखा, उसने अपने मैले कुचैले झोले में से एक जोड़ी साफ सुथरी नई चप्पलें निकालीं और मेरे पैरों के आगे रख दी। मैं तो पहले ही शर्म से गड़ी जा रही थी और वो भिखारी था कि उपकार पे उपकार किए जा रहा था। क्या करूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा था। बदरपुर मेट्रो स्टेशन के पास कोई चप्पल की दुकान भी नहीं थी। ऑफिस को भी देर हो रही थी। उसने मेरे असमंजस को भी शायद समझ लिया और बोला," जाइये देर हो रही है।" पर मेरा दिमाग अभी भी बेचैन था कि आखिर ये नई चप्पल इसके पास आई कहाँ से ? और उससे भी बड़ा सवाल ये था कि भिखारी होकर भी उसने बिना कुछ सोचे-समझे अपनी नई चप्पलें मुझे दे दी। उसने उस वक्त मेरी मदद की जब मुझे उसकी मदद की सख्त जरुरत थी। यूँ तो सैकड़ों लोग आस-पास से गुज़र रहे थे पर कहाँ है किसी के पास इतना समय जो किसी दूसरे का दुःख समझ सके।
मैंने उसे धन्यवाद दिया और मन से उसकी चप्पल पहनी। और पछतावे के आंसू बहाते हुए अपनी ट्रेन की ओर बढ़ चली।
आज भिखारी वो नहीं था, मैं थी। किसी के सहारे की, किसी की दया की, किसी के उपकार की भीख की आज मुझे सख्त जरुरत थी। उसने, जिसे मैंने हमेशा छोटा समझा, गरीब समझा, वो तो दिल का बड़ा ही अमीर निकला, दिल खोलकर उसने मेरी मदद की।
आज जब फिर आत्मनिरीक्षण किया तो समझ आया कि भिखारी कौन नहीं है यहाँ? असल में हम सभी भिखारी हैं। हम भिखारी हैं प्यार के, सम्मान के, अपनेपन के, वक्त की रहमत के और हाथों की लकीरों के । हम सब भिखारी हैं यहाँ। भिखारी कौन नहीं?
--------ऋतु अस्थाना
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