गुल ए गुलज़ार फिर अपना चमन हो।
काश ऐसा हमारा वतन हो ,
न भूखा हो कोई ,
न कोई दुखी हो ,
सभी के उजले से और ,
भोले से मन हों।
एक ही धर्म हो ,
बस इंसानियत का,
न हो मंदिर, न मस्जिद ,
का कोई भेद ही हो।
हर बन्दे के दिल में ,
दरिया बस प्यार का हो।
बैर न हो ऊंच-नीच का ,
बैर न हो ऊंच-नीच का ,
ऐसा ही बेजोड़ हमारा भी घर हो।
एक ही धर्म की खुशबू,
चलो चल कर बिखेरें,
होंगे कुछ नए से ,
फकत अपने सवेरे।
ख्वाब ये चल फिर से हम देखें ,
कि अलबेला सा इक अपना चमन हो।
जब मिसाल दे दुनिया ,
कि देखो तो ये भारत ,
कितना बदल गया है ,
लहू देखो लहू में ये ,
किस तरह घुल सा गया है।
दर्द जब किसी गैर का ,
भी अपना सा लगेगा ,
उस रोज़ वतन अपना ,
यक़ीनन बदलने लगेगा।
हर धर्म से उपर
भी एक धर्म होता है।
क़र्ज़ माटी का चुकाना
भी अपना फ़र्ज़ होता है।
कीजिये इश्क यूँ कि कबीले तारीफ़ हो ,
वतन परस्तों की फेहरिस्त में ,
नाम अपना भी दर्ज हो।
ऐ खुदा ख्वाब अपना ये पूरा हो ,
गुल ए गुलज़ार फिर अपना चमन हो।
गुल ए गुलज़ार फिर अपना चमन हो।
------ऋतु अस्थाना
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