Saturday, 16 April 2016

गुल ए गुलज़ार फिर अपना चमन हो। 



काश ऐसा हमारा वतन हो ,
न भूखा हो कोई , 
न कोई दुखी हो ,
सभी के उजले से और ,
भोले से मन हों।   
एक ही धर्म हो ,
बस इंसानियत का, 
न हो मंदिर, न मस्जिद  ,
का कोई भेद ही हो।  
हर बन्दे के दिल में ,
दरिया बस प्यार का हो।  
बैर न हो ऊंच-नीच का ,
ऐसा ही बेजोड़ हमारा भी घर हो। 
एक ही धर्म की खुशबू,
चलो चल कर बिखेरें,
होंगे कुछ नए से ,
फकत अपने सवेरे। 
 ख्वाब ये चल फिर से हम देखें , 
कि अलबेला सा इक अपना चमन हो।
जब मिसाल दे दुनिया  ,
कि देखो तो ये  भारत ,
कितना बदल गया है ,
लहू देखो लहू में ये ,
किस तरह घुल सा गया है। 
 दर्द जब किसी गैर का ,
भी अपना सा लगेगा ,
उस रोज़ वतन अपना  ,
यक़ीनन बदलने लगेगा। 
हर धर्म से उपर 
भी एक धर्म होता है। 
क़र्ज़ माटी का चुकाना 
भी अपना फ़र्ज़ होता है। 
कीजिये इश्क यूँ कि कबीले तारीफ़ हो  ,
वतन परस्तों की फेहरिस्त में ,
नाम अपना भी दर्ज हो।
ऐ खुदा ख्वाब अपना ये पूरा हो ,
गुल ए गुलज़ार फिर अपना चमन हो। 
गुल ए गुलज़ार फिर अपना चमन हो।

------ऋतु अस्थाना 

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