वो मजदूर का बेटा।
कल जिंदगी को कुछ,
यूँ देखा करीब से।
रिश्ता न कोई था,
मेरा उस गरीब से।
वो मजदूर का बेटा,
गली में खेल रहा था।
कड़ी धूप से बेखबर,
जिंदगी को झेल रहा था।
वो नन्हा जो मुस्कुराया,
तो मुस्कुरा मैं भी उठी।
बिना किसी सौगात के,
नन्ही सी आँखें चमक उठीं।
उस पल को जिंदगी ज्यों,
फिर गुनगुना उठी।
न कोई रिश्ता और,
न कोई सम्बन्ध ही था।
फिर भी वो पल न जाने क्यों,
मुझे गुदगुदा रहा था।
कुछ नाज़ सा हुआ खुद पर,
कि काम कुछ अच्छा कर गए।
जो रिश्ता इंसानियत का,
हम अता कर गए।
जो रिश्ता इंसानियत का,
हम अता कर गए।
## ऋतु अस्थाना ##
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