Thursday, 16 April 2015

अचेतन मन

Excerpt



The story is based on unconscious mind. God Almighty  has blessed us with a commendable body part which is unconscious mind. Whatever we do, it always guide us accordingly but we often subside it's voice and move according to our physical brain for our advantage. If at every point of time in life we listen to it prudently, we may restrict our self of doing any fallacious deed.






             आज उस बात को करीब २० वर्ष हो गए हैं। पर आज भी उस घटना की स्मृति से मेरा मन सिहर उठता है। आज भी मै अपने अचेतन मन की दी हुई सीख पर नतमस्तक हूँ। यदि समय रहते मैंने इसकी बात मान ली होती तो संभवतः मै उस भीषण, दर्दनाक पलों से स्वयं को बचा पाता। पर ये सोचकर ही संतोष कर लेता हूँ कि ईश्वर ने जब मुझे दूसरा अवसर दिया है तो मै कदापि अपने अचेतन मन द्वारा दिए गए निर्देशों की उपेक्षा नहीं करूँगा। और सभी को इसका हमारे जीवन में महत्व समझाऊंगा। 

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             बात उस समय की है जब मै अपनी किशोरावस्था में था। जीवन अति सुनहरा प्रतीत होता था। यूँ लगता था कि  मैं जो चाहे कर सकता हूँ।  नहीं जैसा कोई भी शब्द मेरे शब्दकोष में था ही नहीं। मै चाहूँ तो चाँद सितारे भी तोड़ सकता हूँ। मै स्वयं को किसी फ़िल्मी नायक से कम नहीं समझता था। जैसे-तैसे १२ वी की परीक्षा दी और साथियों के साथ घूमना फिरना, मौज मस्ती करना प्रारम्भ हो गया। 
      माँ होती तो संभवतः रोक-टोंक  करतीं पर उनकी छत्रछाया से मैं सदा वंचित ही रहा। उनका स्वर्गवास मेरे जन्म के कुछ दिन उपरान्त ही हो गया था। घर और बाहर, सभी का उत्तरदायित्व मेरे पिता पर ही था। वो मेरा जी जान से ध्यान रखते थे। सदैव मेरी इच्छाओं का भली भाँति  ध्यान रखते थे। यदा-कदा पढाई और साथी-संगी के बारे में समझाते थे। पर उम्र के उस जोशीले एवं नशीले पड़ाव पर न तो मै उनकी सुनता और ना कभी अपने अचेतन मन की। मेरा अचेतन मन अक्सर मुझे चेतावनी देता रहता कि ये ना कर, वो ना कर। पर मै सदा उसको ये कह कर चुप करा देता कि  ये ही तो मस्ती का समय है फिर तो जीवन भर केवल उत्तरदायित्व ही निभाने पड़ते हैं। मेरा उस उम्र में अपने लिए, अपने पिता के लिए भी कुछ उत्तरदायित्व है, इसकी जानकारी होने के उपरान्त भी मै उसे अनदेखा, अनसुना कर देता था। 



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       आज मेरा मन एक अप्रत्याशित डर से कांप रहा था। १२ वीं के पश्चात मैंने जो भी इंजिनीयरिंग की परीक्षाएं दी थीं उनका आज परिणाम आने वाला था। मेरा अंतर्मन तो परिणाम भली-भांति जानता था पर मैंने उसे व्यक्त नहीं किया था। 

पिताजी, "रोहन! देख जरा, तेरा परिणाम आ गया होगा। चल जरा शीघ्रता दिखा। मुझे फिर काम पर जाना है। "
रोहन ," हाँ पिताजी अभी देखता हूँ। "
अनमने मन से मैंने इंटरनेट पर देखा, उसमे मेरा नाम कहीं नहीं था। आँखे मसलीं और एक बार पुनः देखा पर मेरा नाम फिर भी नहीं दिखा। 
पिताजी अपने काम पर जाने वाले थे इसलिए जल्दी जल्दी अपना नाश्ता समाप्त कर रहे थे।  मुंह में ब्रेड का टुकड़ा भरे हुए ही बोले ,"हाँ बता, तेरा नाम कहीं है या नहीं।?"
रोहन, "हाँ क्यों नहीं? मेरा नाम ना हो ऐसा कभी हो सकता है क्या? मैं पढ़ने में कितना अच्छा हूँ , आप तो जानते ही हैं। "
पिताजी मुस्कुराते हुए ," हाँ मै तो जानता हूँ पर ये परीक्षा लेने वाले नहीं जानते कि तू आजकल पढाई कम, साथियों के साथ मौज मस्ती अधिक कर रहा है। पहले तो पढाई में तू सच में बड़ा अच्छा था। पर अब।"
मेरा ह्रदय जोर-जोर से धड़कने  लगा। पिताजी मेरी ओर ही आ रहे थे। मैंने जल्दी से कंप्यूटर बंद कर दिया जिससे कि  वे सच्चाई से दूर रहें।  पर कब तक?
पिताजी ,"अच्छा, शाम को देखता हूँ, अभी मुझे देर हो रही है। तुम ठीक से खाना खा लेना। और अपने बाइक वाले साथियों के साथ मत जाना। बड़ा ही तेज चलाते हैं।  चल अब किवाड़  लगा ले। जय श्री राम। "



         और पिताजी चले गए। मैं हैरान, परेशान सा बैठा रहा। खाना तो दूर, अब तो अपना थूक गटकना भी कष्टकर प्रतीत हो रहा था। क्या करूँ, क्या ना करूँ  कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मुझे स्वयं भी अपनी आँखों पर पूर्णतः विश्वास नहीं हो रहा था। मैं तो बचपन से ही पढाई लिखाई में अत्यंत मेधावी रहा हूँ , फिर ये क्या हो गया ?

आज मुझे स्मरण हुआ कि अनेकों बार मेरे अचेतन मन ने मुझे मेरे नए साथियों के साथ जाने से रोका था। अनेकों बार उसने समझाया था कि अभी मुझे मन लगाकर पढाई करनी चाहिए। अपनी और अपने पिता के सपने को पूरा करने के लिए मुझे कड़ा परिश्रम करना चाहिये। पर मैंने उसकी एक न सुनी। मुझे अपने नए साथियों के साथ बातें करना एवं घूमना-फिरना बड़ा ही आनंद देता था। उस समय अचेतन मन क्या स्वयं भगवान भी यदि मुझे रोकते तो संभवतः मै उनकी भी नहीं सुनता। 
इसी उहापोह में मै बैठा था कि मेरा मोबाइल फ़ोन घनघनाया। अरे ये तो सूरज का फ़ोन है। 
मै यानि  रोहन ," बोल सूरज ,क्या बात है ?"
सूरज चहकते हुए बोला, "अरे रोहन आज बाइक रेस का मन बन रहा है। जल्दी से तैय्यार हो जा। "
मैंने मरे हुए स्वर में बोला ," नहीं मै नहीं आ पाउँगा। तुम लोग जाओ। "
कहकर मैंने फ़ोन काट दिया। 
इसी उहापोह में कि कहाँ पर मुझसे चूक हो गई, मेरी आँख लग गई। तभी किसी के हिलाने और पुकारने से मेरी नींद खुली। 
सूरज ,"अरे रोहन उठ जा अब।  इतनी देर से जगा रहे हैं तुझे। चल रेस करते है बड़ा मजा आएगा। 
रोहन , "नहीं आज मेरा मन नहीं है।  मेरा परिणाम भी आशा के विपरीत आया है। पिताजी से झूठ बोला है पता नहीं शाम को कैसे बताऊंगा। तुम लोग जाओ। "
तभी करन भी अपनी बाइक  से आ गया। और मुझे चलने के लिए मनाने लगा। 
मन के किसी कोने से एक स्वर उभरा कि  मत जा और अपने पिता का सामना सच बोलकर कर। इन साथियों के साथ पुनः जाना ठीक नहीँ है। ये स्वर था,  मेरे अचेतन मन का। मैंने भी मन कड़ा कर कहा कि मुझे रेस नहीं करनी तुम लोग जाओ। 
पर मेरे मन में भी मौज मस्ती करने का लालच उभरने लगा। 
रोहन , "चल अच्छा चलता हूँ।  पर जल्दी आ जाऊंगा। "
और फिर हम निकल पड़े। 



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            सांय काल का सुहाना मौसम, सुन्दर मदमस्त पवन में  तीव्र गति से हमारी बाइक चलने लगी। और पल भर में ही हम हवा से बातें करने लगे। तीव्र गति से बाइक चलाना अत्यंत ही  रोमांचकारी था।  

हमने रेस का विचार त्याग कर केवल घूमने का तय किया। 
जीवन का मजा उसी पल आता है, जब हम उसका आनंद उठाते हैं। पिताजी अक्सर बाइक तेज चलाने को मना करते थे। पर क्या करें, इस समय नसों  में मानो रक्त के साथ साथ एक अदम्य उत्साह और उमंग दौड़ रहा था। मन की कौन सुने जब ऐसे साथियों का साथ हो। 
            करन ने बाइक एक शराब की दुकान के सामने लगा ली। मैं थोड़ा चौंका। मैंने थोड़ी अनिच्छा  व्यक्त करी। 
मैं ,"ये क्या है ? यहाँ क्यों आए हो? हम लोग शराब नहीं पीते हैं। "
सूरज ," तेरे कारण ही आए है। तेरा दुःख हमसे देखा नहीं जा रहा। तू जैसे ही इसे  पिएगा , सारे कष्ट दूर हो जाएंगे तेरे। "

करन , "सच है। चल अधिक नहीं, थोड़ी थोड़ी ले लेते हैं। हम भी कौन से पियक्कड़ हैं। जीवन के मजे लूट लें आज , फिर पता नहीं मौका मिले न मिले।  "

रोहन यानि , मै बड़े ही धर्म संकट में फंस गया। एक ओर मेरी चिंता करने वाले मेरे साथी और एक और मेरा अंतर्मन, जो चेतावनी दे रहा था कि ये गलत है, शराब मत पी। कहते हैं कि  प्यार से कोई पिलाए तो विष भी अमृत हो जाता है। पर साथियों का प्यार सच्चा है या नहीं इसका तनिक भी भान मुझे नहीं था। 

फिर क्या था मैंने भी थोड़ी सी पी और सच मे यूँ लगा कि  जैसे मन हल्का हो गया है। असफलता के परिणाम की बात को मैंने धुंए में उडा दिया। और अपने साथियों के रंग में ही रंग गया। अब मुझे किसी की भी चिंता न थी,  न तो पिताजी की और न ही अपने अचेतन मन की। 
थोड़ी देर के पश्चात करन बोला ," रोहन तू ही बाइक चला,  तूने हमसे कम पी  है। हमसे तो चलेगी ही नहीं। हमारे सिर तो नशे में घूम रहे हैं। "
मैंने आव देखा न ताव और चाभी लेकर बोला , "हाँ मै चला लूंगा। तुम मेरे सबसे अच्छे साथी हो। अब मुझे बड़ा ही सुकून का अनुभव हो रहा है। "
और बस फिर क्या था मैं बाइक चलाने लगा। इससे पहले ये संसार इतना सुन्दर कभी नहीं लगा था। 
रंग बिरंगे सितारे मानो मेरा पथ प्रदर्शन कर रहे थे। आसमान से भीना-भीना धुआं निकल रहा था। कहीं से मीठा-मीठा मन मोहक संगीत कानों को और रोमांच से भर देता था। मेरी हवा से बातें करती हुई बाइक कितने ही लोगो को अपने पीछे छोड़, आगे निकल आई थी। आज सच में जीवन एक सुखद अनुभूति के अतिरिक्त कुछ नहीं लग रहा था। 



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तभी अचानक मेरी आँखों के सामने अँधेरा सा छा गया।अचानक सिर जोर से चकराने लगा। पहला नशा संभवतः मेरी चेतना को निगलने लगाथा। 


आनद के पल अपनी समाप्ति की ओर थे। हवा अभी भी मंद मंद मुस्कुरा रही थी। 

और समय ? समय के गर्भ में क्या है इसका पता तो बड़े बड़े ऋषि मुनि भी नहीं लगा सके। ये पल में राजा को रंक और रंक को राजा बना सकता है। एक  पल में ये सुख को दुःख और दुःख को सुख में परिणित कर सकने में सक्षम है। इसकी मार से कौन बचा है , न तो कोई प्रेमी युगल, न कोई योद्धा और न ही कोई महान आत्मा।समय के निर्णय के समक्ष हमें हर हाल में नत मस्तक होना ही पड़ता है। तभी कहा जाता है कि समय बड़ा बलवान।   



              पर इस किशोर मन का क्या करें, जो किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं होता है। जो कभी दार्शनिक अरस्तु की भांति व्यवहार करता है तो कभी प्रेमी हीर-रांझा की भांति कोमल होता है , तो कभी किसी वैज्ञानिक की भांति प्रश्न करता है। किशोरों का एक पृथक ही संसार होता है। ये वर्तमान में कम और भविष्य के सपने बुनने में अधिक व्यस्त रहता है।और तब वो ये भुला देता है कि आज का किया गया परिश्रम ही सुनहरे भविष्य का निर्माण करेगा। 

            धड़ाक! धड़ाक! धड़ाक!  और तीव्र ध्वनि के साथ हमारी बाइक किसी कठोर वस्तु से टकराई और हम तीनों  पृथक  पृथक दिशाओं में गेंद की भांति उछल  गए।
हमारा मौज-मस्ती का समय अब जीवन मृत्यु की डगर पर स्वतः चल पड़ा। 

मैं, क्योकि बाइक चला रहा था, उछलकर एक गहरे गड्ढे में जा गिरा। तीव्र, असहनीय एवं भीषण पीड़ा से मैं तड़पने लगा। आँखों से आँसू रक्त समान बहने लगे. उस समय स्वयं को कोसने के अतिरिक्त मेरे पास और कोई चारा न था। सिर के बल गिरने से संभवतः, सिर से तीव्र गति से  रक्तस्राव प्रारम्भ हो गया था जो रिस-रिस कर मेरे नाक और मुंह में जा रहा था। बड़ा प्रयास करने के बाद भी मै अपने हाथ पैर न हिला सका और धीरे-धीरे मै अपनी चेतना खोने लगा। 
           कुछ समय अन्तराल मुझे लगा कि अब दर्द थोड़ा कम है तो प्रयास कर यहाँ से निकल कर घर जाता हूँ। पिताजी भी चिंतित होंगे। और मै बिना किसी दर्द के आराम से बाहर आ गया। बाहर आकर देखा तो टूटी हुई बाइक पड़ी थी। पर करन और सूरज कहीं दिखाई नहीं पड़े। मुझे लगा कि  संभवतः कोई उन्हें अस्पताल ले गया होगा। मै उनके लिए थोड़ा चिंतित हुआ पर सोचा कि फ़ोन कर के पता करता हूँ। 
         पर ये क्या? मोबाइल उठाने के लिए ज्यों ही मै गड्ढे में झुका, वहां तो मेरा रक्तरंजित शरीर निढाल सा पड़ा था। मै गर्मी के मौसम में भी पसीने से भीग गया।

         ' नहीं ,ये नहीं हो सकता, मै मर नहीं सकता।हाय! ये क्या किया मैंने ?अपने पिता को अकेलेपन के अंधेरों में धकेल दिया। क्या होगा मेरे पिताजी का? कैसे रहेंगे वे? आज किशोरावस्था के उस उत्साह और मौज मस्ती से मुझे घृणा हो रही थी। काश मै अपने पिता के मार्गदर्शन का उचित लाभ उठा पाता। काश मै एक बार पुनः उनकी गोद में सिर रखकर चैन से सो पाता। ये सब न हुआ होता यदि मैंने गलत साथी न बनाए  होते। काश ये और काश वो। अपने अचेतन मन की चेतावनियों को न सुनने की इतनी बड़ी सजा? नहीं प्रभु , बस एक मौका दे दो।  बस एक मौका। कभी कोई गलती नहीं करूँगा। सदा अपने पिता की आज्ञा मानूंगा। सदा तेरे अंश, यानि अपने अचेतन मन की पुकार उसके निर्देशों का पालन करूंगा।  बस एक मौका। ' सोचते सोचते मै संज्ञाशून्य हो गया। 



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             संभवतः मेरी करुण पुकार मेरे ईश्वर ने सुन ली। अब जब मुझे चेतना आई तो मै अस्पताल के एक कमरे में खड़ा अपने पट्टियों में लिपटे शरीर को स्वयं अपनी आँखों से देख रहा था। पिताजी एक बुत की भांति बैठे थे। रो रोकर उनके आंसू मानो समाप्त हो चुके थे। अभी भी वे मेरे ठीक हो जाने की प्रार्थना कर रहे थे। मेंरा परीक्षाफल पास में ही रखा था।कितना विशाल होता है माता पिता का ह्रदय ! मेरी इतनी गलतियों के बाद भी वे  मुझे प्यार से निहार रहे थे मानो कोई नवजात शिशु के जागने की प्रतीक्षा कर रहा हो। 
         मृत्यु के पश्चात  कहते हैं कि  कोई कष्ट नहीं होता। परन्तु ऐसा नहीं है, ह्रदय की पीड़ा, अपने कुकृत्यों का बोझ बड़ा ही कष्टप्रद होता है। मै अपने समक्ष अपना शरीर देख रहा हूँ, इसका शत प्रतिशत अर्थ है कि मै मृत्यु के मुख में जा चुका हूँ। शरीर का कष्ट तो नहीं था पर आत्मा पर एक बोझ अवश्य था। अब पश्चात्ताप के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं था। 
         पिताजी को अपने जीवन की यात्रा मेरे बिना ही पूरी करनी पड़ेगी। मैंने अपने दोनों हाथ जोड़कर भरे ह्रदय से पिताजी से क्षमा मांगी और इस संसार से विदाई लेने की आज्ञा मांगी। पर पिताजी तो एकटक मेरे लगभग निर्जीव मुखमंडल को देख रहे थे। 



       किसी धवल, तीव्र प्रकाश ने मुझे अपनी ओर खींचा और मैं उसमे विलुप्त होने लगा। तभी किसी का भारी किन्तु कोमल स्वर गूंजा, " एक मौका दिया जाए तो क्या अपना वचन निभाओगे ?"

मैं बुदबुदाया, "हाँ ,अवश्य निभाउंगा। पर कौन हो तुम? क्या तुम ईश्वर हो ? "
प्रत्युत्तर में वही स्वर गूंजा, "तुम्हारा अचेतन मन। मै इसी में रहता हूँ, जिसे तुम प्रभु, भगवान और कई पृथक नामों से पुकारते हो। मुझे कहीं और ढूंढने से अच्छा है कि अपने मन के भीतर ढूढो और सदा एक अच्छे व्यक्ति बनने का प्रयास करो। अब तुम वापस जाओ। जाओ एक मौका दिया तुम्हे। "



     और एक बार पुनः मैं तीव्र दर्द से छटपटा उठा। मानो किसी ने मुझे वापस मेरे शरीर में धक्का दे दिया हो। असीम पीड़ा से मैं तिलमिला उठा। तन का कष्ट अधिक था पर मन में एक अनंत शांति थी. ये मेरा पुनजन्म था। मुझे केवल एक पुनर्जन्म  ही नहीं मिला बल्कि मेरे दिव्य नेत्र भी खुल गए थे। 


           पिताजी ने जैसे ही मेरी आँखे थोड़ी सी खुली देखी ,वे मुझे सिर से पॉव तक चूमने लगे। 
पिताजी , "रोहन किसी बात की चिंता मत कर मेरे बच्चे।  तू जल्द ही स्वस्थ हो जाएगा। और एक बार पुनः अच्छे से पढाई करेगा। तू मेरा एक मात्र सहारा है, में तेरे बिना नहीं जी सकता रोहन, नहीं जी सकता,  मेरे बच्चे, मेरे लाल। आज पूरे दो महीनों पश्चात तुझे होश आया है। ईश्वर को लाखों बार मैं प्रणाम करता हूँ , उन्होंने मेरी आँखों की ज्योति, मेरी आत्मा का अंश और मेरे जीवन का अनमोल रतन  मुझे लौटा दिया। "



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                उसके पश्चात मैंने अपने को थोड़ा बदला। कडे परिश्रम के उपरान्त मेरा एक अच्छे इंजिनीरिंग कॉलेज के लिए चयन हो गया। युवावस्था का उत्साह कम नहीं था पर मेरा दृष्टिकोण बदल चुका था। जीवन अब भी अति सुन्दर है बस अब मै कभी बाइक नहीं चला सकता। अपने अपराधों का मूल्य मुझे चुकाना ही था। प्रकृति ने मेरे पैर छीनकर मुझे एक पुनर्जन्म प्रदान किया था। 



          आज मै सुशिक्षित एवं समझदार युवक हूँ। मेरा परिवार, एक सुखी परिवार है। मै  अपने पिता, अपनी सुघढ़ पत्नी और दो प्यारे बच्चों से अथाह प्रेम करता हूँ। और परिवार एवं समाज के प्रति अपने दायित्वों को भली प्रकार समझता हूँ।
          मेरी डायृरी का ये पृष्ठ, एक वृत्तांत, मै अपने सभी परिजनों, मित्रों और बच्चों को भी सुनाऊंगा। जिससे उनका मार्गदर्शन हो सके। 


आज भी उस पल की स्मृति, मेरी श्वास उखाड  देती है। उस घटना को ध्यान कर आज भी कड़ाके ठण्ड में मैं पसीने से भीग जाता हूँ। 



पाठको से मेरा अनुरोध है कि कृपया दूसरे मौके की प्रतीक्षा न कर अपना और अपने परिवार के  प्रति अपने दायित्व को समझ कर कार्य करें और अपने जीवन को सफल बनाएँ। 



-------समाप्त--------














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