Tuesday, 21 April 2015

अटूट बंधन


विवाह : अटूट बंधन 

                प्रातःकाल का समय था। जहाँ सभी लोग दिन का प्रारंम्भ  एक नई स्फूर्ति, एक नई उमंग के साथ करते  हैं वहीँ सपना और सुहास अपने विवाह को समाप्त करने के लिए जज की प्रतीक्षा कर रहे  थे। आज उनके बीच तलाक के अंतिम निर्णय का दिन था। एक प्रेमी युगल आज के निर्णय के पश्चात सदा के लिए अलग हो जाएगा। विवाहित जीवन के ६ वर्ष पश्चात उन्होंने इस पवित्र बंधन को पूर्ण रूप से समाप्त करने का विचार किया।
             सपना और सुहास का प्रेम कोई नया नहीं था। दोनों कॉलेज के दिनों से ही लैला- मजनूँ  की भांति जाने जाते थे। सुहास, सपना को बहुत प्यार करता था। और सपना ने अपने रात-दिन ही नहीं अपना पूरा जीवन सुहास के नाम लिख दिया था।
            दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रथम वर्ष में ही दोनों की दोस्ती हुई और कब ये दोस्ती ने प्यार का रूप ले लिया उन्हें पता ही न चला।  सपना बडे ही सुन्दर व्यक्तित्व की स्वामिनी थी। श्वेत, धुली  चांदनी जैसा उसका रंग, तीखे नैन नक्श , छरहरा बदन और काले घुंघराले मेघ जैसे बाल। कॉलेज का हर लड़का उस पर लट्टू था।पर वो सुहास के प्रेम मे पागल थी। सुहास भी कम आकर्षक नहीं था। उसका व्यक्तित्व बड़ा ही लुभावना था।
           दोनों घंटों हाथों में हाथ डाले यहाँ वहां घूमते रहते थे। दींन दुनिया की उन्हें रंचमात्र  भी चिंता न थी। सपना के रूप से सुहास बहुत प्रभावित था। जब वो उसके साथ चलती थी तो उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था। और सपना, सुहास की मीठी मीठी बातों से उसे और भी प्यार करने पर विवश हो जाती थी। उसे लगता था कि सुहास से अच्छा जीवनसाथी उसे मिल ही नहीं सकता।
         कॉलेज समाप्त कर सुहास अपने पिता का शोरूम सँभालने लगा। और दोनों परिवारों की सहमति से सपना और सुहास विवाह के अटूट बंधन में बंध  गए। विवाह के प्रारम्भ के दिन हंसी ठिठोली, प्यार-तकरार और मौज मस्ती में ही निकल गए। सपना स्वयं को बड़ा ही भाग्यशाली समझती थी। वो सुहास के लिए कुछ भी कर सकती थी। कुल मिलाकर सपना पूरी तरह से उसके रंग में रंग गई थी। सच मानिए तो प्यार का जादू कुछ ऐसा ही होता है। इसमें प्रेमी अपनी सुध-बुध खोकर केवल अपने साथी की प्रसन्नता, उसकी पसंद, नापसंद उसके सम्मान और उसकी भलाई की प्रति-पल कामना करता रहता है।
          सुहास के काम पर जाने के पश्चात घर के सभी काम समाप्त करने के बाद भी सपना का मन नहीं लगता था। अब सुहास का साथ पहले  की भांति नहीं रहा था। धीरे धीरे सुहास ने सपना से बातें करना कम कर दिया था।सपना ने सोचा कि मै भी कुछ काम कर लेती हूँ तो दिन भर सुहास की यादों में घुलना नहीं पड़ेगा  और मेरा मन भी बहल जाएगा।
          एक दिन रात  के खाने पर उसने सुहास से पूछा, "सुहास मै सोच रही हूँ कि कोई काम कर लूँ। पूरा दिन तुम्हारे बिना काटना बड़ा ही असहनीय सा लगता है। "
            सुहास बिना उसकी ओर देखे ही बोला, " क्यों? घर में मेरे माता-पिता नहीं हैं? उनका ध्यान कौन रखेगा? अब तुम्हे उनकी सेवा करनी चाहिए और तनिक अपने को परिपक्व बनाना चाहिए। हर काम का एक समय होता है। पर मुझे लगता है कि तुम ये सब दायित्वों से घबरा रही हो। तुम्हें संभवतः पता नहीँ है कि पुरुष विवाह क्यों करते हैं? अपना घर बसाने से अधिक वे अपने माता पिता का ऋण चुकाना चाहते हैं। किस्मतवाले होते हैं वे लोग जिन्हे समझदार पत्नी मिल जाती है। मै तुम्हारे रूप पर आसक्त होकर आज भी पछता रहा हूँ। अब तुम्हे थोड़ा बडों की तरह व्यवहार करना चाहिए। अब तुम कोई कॉलेज वाली लड़की नहीं रह गई हो। एक पत्नी और एक बहू  की तरह व्यवहार किया करो। "
         
               सपना, सुहास के इतने हृदय को तोड़ने वाले शब्द सुनकर सकते में आ गई। सपना ने सुहास का आज ये नया रूप देखा था। उसकी आँखों से गंगा -यमुना बह चली।
           उसने रोते हुए सुहास से पूछा, " तो क्या तुमने  मुझे कभी प्रेम नहीं किया? मै तो रात-दिन तुमसे ही प्यार करती रही।  कभी अपने बारे में सोचा तक नहीं। और तुम कह रहे हो कि तुम्ने  विवाह अपने माता पिता का ऋण उतारने के लिए किया है। मैंने कब उन्हें पराया समझा? परया तो तुमने मुझे कर दिया ये सब कह कर। माना  कि मुझे अधिक काम काज नहीं आता पर मै सब सीख तो रही हूँ। फिर भी सहयोग करने के विपरीत तुम  ऐसी बातें कर रहे हो ?"
 उस इन के बाद से दोनों के बीच बातचीत लगभग शून्य के बराबर हो गई। बात होती भी तो आरोपों और प्रत्यारोपों के सिवा कुछ भी नहीं।
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                   एक वर्ष उपरान्त वो एक प्यारे से शिशु की माँ बन गई। सुहास और सास-ससुर सभी प्रसन्न थे। सपना को भी जीने का एक सहारा मिल गया। अब उसका सारा समय अपने नवजात शिशु की देखभाल में ही निकल जाता था।
              सुहास को  सपना में  अब और भी कमियां दिखने लगीं  थीं। उसे सपना के हाथ का खाना पसंद नहीं था।
            एक दिन सपना ने बड़े प्यार से उसके लिए खीर बनाई। खीर खाते ही उसने थू-थू कर उसे थूक दिया। सपना जितना भी प्रयास करती उसे प्रसन्न रखने का उतना ही वो उससे दूर होता जा रहा था। सुहास अब बिलकुल बदल चुका था।
           सुहास अब उसके पास केवल अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही आता था। सपना कैसी  है या उसे कोई कष्ट तो नहीं है ये जानने का उसने कभी भी प्रयास नहीं किया था।
         धीरे-धीरे सपना ने इसे ही अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था। सास-ससुर और उसका नवजात  शिशु उसके जीवन का अभिन्न अंग बन गए थे। जब नन्हा सा बालक अपने कोमल हाथों से सपना का मस्तक सहलाता था तो उसके सारे कष्ट समाप्त हो जाते थे। वो ईश्वर का धन्यवाद करती थी कि चाहे पति प्रेंम न मिला हो पर ये सुख भी किसी स्वार्गिक सुख से कदापि कम नहीं था। इस बच्चे के प्यार में ही मै अपना जीवन बिता लूँगी। पर समय के साथ साथ बच्चा बड़ा हो गया और स्कूल जाने लगा।  सपना फिर से अकेली हो गई।  ऐसा नहीं है की सारी स्त्रियां बाहर काम कर के ही सुख पाती हैं। यहाँ बात है उसके स्वाभिमान की, उसके आत्मसम्मान की। जिसे सुहास ने बुरी तरह से रौंद  डाला था।
               यूँ तो उसे खाने पीने, ओढ़ने-पहनने की कोई कमी नहीं थी। पर क्या जीवन की सार्थकता, संबधों का निबाह इस पर ही टिका है? नहीं, सही मायने में तो पति-पत्नी में यदि परस्पर प्यार, विश्वास और एक दूजे के लिए सम्मान की भावना हो तो ये सम्बन्ध जीवन भर निभाए जा सकते है। सच कहा है कि सम्बन्ध बनाना बड़ा ही आसान है किन्तु उसे निभाना बड़ा मुश्किल। संबंधों के पवित्र वृक्ष को प्रेम और स्नेह रूपी जल, समझदारी जैसी धूप और विशवास जैसी खाद की आवश्यकता होती है। कौन यहाँ पर सर्वगुण संपन्न है?                          हम अपने प्रेमी को उसकी कमियों के साथ ही स्वीकार करें तो संबंधों में दरार संभवतः नहीं पड़ेगी।
सपना अब उदास रहने लगी थी। अब उसने अपना ध्यान रखना, बनना संवरना सब छोड़ दिया था।
उसकी सुन्दर आँखों को काली स्याही ने घेर लिया था। शरीर का रंग चिंता के कारण फीका पड़ गया था। रेशमी बाल अब रूखी-सूखी घास फूस से अधिक कुछ भी नहीं थे। वो किसी कोने में दुबककर बैठ जाना चाहती थी।
उसके जीवन से मानो किसी ने सुख का रस पूरी तरह से निचोड़ लिया हो।
ऐसे ही कई वर्ष बीत गए। सपना का पुत्र अब तक पांच वर्ष का हो चुका था।
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          उस दिन सुबह से सपना को अपना सिर भारी सा लग रहा था। उसे हल्का सा बुखार था। सारा शरीर दर्द से कांप रहा था।
सुहास ने नाश्ता(सुबह का जलपान )करते हुए एक निर्णय सुनाया , "सपना आज रात को मैंने अपने कुछ दोस्तों को आमंत्रित किया है। तुम अच्छा सा खाना पका लेना और जरा अपना हुलिया भी ठीक कर लेना। मेरी नाक नहीं कटनी चाहिए।  समझीं ?"
          सपना ने दबे स्वर में कहा ," पर सुहास आज मेरी तबियत कुछ ढीली है। तुम एक आध दिन बाद उन्हें बुला लेते। "
        सुहास चिढ़ते हुए बोला , " तुम औरतों का ये रोज का रोना है। कभी सिरदर्द, कभी बुखार, तो कभी ये तो कभी वो। मै कुछ नहीं जानता, मै उन्हें  आमंत्रित कर चुका हूँ। "
तभी सपना की सास ने आकर उसे चुप रहने का संकेत दिया।
रात के खाने की तैयारी दोनों ने मिलकर करी। सपना अपनी दवाई खाकर यंत्रवत  काम करती रही। अतिथियों के आने के पहले वो हाथ- मुंह धोकर तैयार हो गई। सुहास के पसंद की साड़ी पहनी। मन का दुःख किसी भी बाह्य श्रृंगार से छिपाना असंभव है।
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              सभी लोगों के आने से सुहास बड़ा ही प्रसन्न था। सपना को भी थोड़ा परिवर्तन अच्छा लगा। उनमे से एक उनके कॉलेज का साथी भी था, रवि । रवि, सपना को ऐसे हाल में देखकर दंग  ही रह गया। उसने मौका देखकर उससे पूछा , " सपना क्या बहुत बीमार रहीं इधर?"
          सपना अपने मुख पर कृत्रिम मुस्कान लाते हुए बोली , " नहीं रवि, मै ठीक हूँ और सुहास के साथ प्रसन्न भी। "
रवि हँसते हुए बोला, " तुमने बड़े समय से स्वयं को आइने में देखा नहीं, ऐसा लगता है। तुम्हारी आँखों के चारों ओर पड़े काले घेरे सारी  अनकही कहानी सुना रहे है। "
रवि और सपना ने एक ही स्कूल से १२वी  पास की थी। पर कॉलेज में जैसे ही उसे सुहास दिखा उसने रवि से बातचीत लगभग समाप्त कर दी थी। उसे लगता था कि इतनी सुन्दर लड़की के साथ तो एक आकर्षक लड़के को ही चलना चाहिए।
रवि की स्नेह भरी बातें सुनकर सपना की आँखें छलक आइं।
फिर भी अपने आंसुओं को छिपाते  हुए वो बोली ," किस वस्तु की कमी है मुझे ? एक अच्छे पद पर कार्यरत पति, माता-पिता समान सास ससुर और एक प्यारा सा बेटा। किसी भी स्त्री को जीवन में और क्या चाहिए होता है? "
तभी सुहास के आने से दोनों चुप हो गए।
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अचानक आधी रात में सपना की आँख खुली। वो पानी लेने रसोई की ओर गई तभी उसे किसी की फुसफुसाने की आवाज सुनाई दी। एक स्त्री, उसकी सास, की आवाज थी और दूसरी सुहास की।
सास,  "सुहास बेटा जैसा बताया है, यदि तुम वैसा ही करते रहे तो सदैव वो तुमसे दबी रहेगी अन्यथा प्रेम विवाह में तो औरतें पति को अपनी उँगलियों पर नचाती हैं। और हाँ , नौकरी कभी मत करने देना और सदा उसे झिड़कते रहना। तभी तुम एक सफल पति बन पाओगे। "
सुहास धीमे स्वर में, " पर माँ मै उसे प्यार करता हूँ , उसे दुःख देता हूँ तो स्वयं भी कम दुखी नहीं होता हूँ। पर आपकी बात भी मुझे सही लगती है कि यदि उसे छूट  दी तो संभवतः वो आप लोगों से अलग रहने को कहे और मुझे अपनी बातों में फंसा सकती है। इसलिए मै वही करूँगा जी आप कहती हैं। अच्छा जाता हूँ माँ।  शुभ रात्रि !"
सपना को सारी  बातें समझ आ गईं।  ये  कोई और नहीं उसकी सास ही थी जो सुहास के मन में विष घोल रहीं थीं।
अगले दिन ही सपना कोई बहाना बनाकर अपने मायके चली गई और सुहास को कोर्ट का नोटिस भेज दिया।
तब से लेकर अब तक सपना ने सुहास से एक बार भी बात करने का प्रयास नहीं किया। उसे गहरा आश्चर्य था कि सुहास ने अपनी माँ के कहने पर अपने प्यार  तक को भुला दिया और उसके साथ इतना दुर्व्यवहार किया।
                    और आज अंतिम निर्णय का अवसर था। कहीं एक छोटी सी आशा की किरण सपना के मन में थी कि यदि उसका प्यार सच्चा है तो सुहास उसे सम्मान से उसके घर में उसका स्थान दिलाएगा। पर समय तीव्रता से बीता जा रहा था। सुहास अभी तक कोर्ट में नहीं पहुंचा था। किसी अंजानी आशंका से सपना का मन कांप रहा था कि तभी रवि का फ़ोन आया कि सुहास ने आत्महत्या का प्रयास किया है, तो वकील से  निवेदन कर निर्णय की घडी थोड़ी आगे बढ़वा  दो।
              सपना की  सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई। किसी तरह वकील को सारी  बात बता कर वो बाहर की  ओर भागी। बाहर रवि गाड़ी लेकर खड़ा था।  सपना ने विस्मय से  देखा और जल्दी से सुहास से मिलने चल दी।
सपना कांपते हुए बोली, " रवि तुम तो कह रहे थे कि तलाक वाली योजना काम कर जाएगी? ये देखो क्या हो गया? सुहास कैसा है? उसने आत्महत्या का प्रयास क्यों किया? सब मेरी गलती है? मेरे सुहास को कुछ हो गया तो मै क्या करुँगी रवि? मै भी मर जाउंगी? उसके बिना तो मै इस जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती। हे प्रभु ये सब क्या हो गया ?"
रवि बिना किसी उत्तर के सारी बातें चुपचाप सुनता रहा।
रवि ने गाड़ी अपने घर के सामने लगा ली और सपना को उतरने को कहा। 
           सपना गहन आश्चर्य से गाड़ी से उतरी। रवि उसे अंदर ले गया जहाँ पर सुहास आँख बंद कर लेटा  हुआ था।
सपना चीखते हुए उसकी ओर भागी ," सुहास ये तुमने क्या किया? मैंने तो तलाक  का नोटिस केवल तुम्हे सबक सीखाने के लिए भेजा था। "
        सुहास उठकर बैठ गया ," मुझे क्षमा कर दो सपना। मैंने तुम्हारा बड़ा अपमान किया तुम्हे विवाह के पश्चात प्यार और स्नेह देने के विपरीत केवल कटक्षों और तानों में ही बात की। मै माँ की बातों में बहक गया था। वो तो भला हो रवि का जिसने मुझे समय रहते सब समझाया कि पत्नी को प्यार देना ही केवल  पति का दायित्व नहीं अपितु उसके मान-सम्मान और उसकी इच्छाओं का ध्यान रखना भी पति का कर्तव्य है। तुमसे और मुन्ने से बिछड़कर जीने की तो मै सोच भी नहीं सकता। मैंने तुम्हारा प्यार वापस पाने के लिए ये नाटक किया था ।  पर वो है इस नाटक का सूत्रधार जिसने  समय रहते मुझे मेरे कर्तव्यों का बोध कराया और हमारे जीवन में एक बार फिर से प्यार के फूल खिला दिए। "
सपना को आश्चर्य में पड़ा देखकर सुहास ने उसे विस्तार से बताया।

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 उधर कोर्ट में जब सभी सुहास की प्रतीक्षा कर रहे थे तो सुहास ने स्वयं को कमरे में बंद कर लिया था। रवि उसकी मनोदशा से अनभिज्ञ नहीं था इसलिए वो उसे कोर्ट के लिए लिवाने के लिए आ गया। जब उसे पता चला तो उसने सुहास का प्यार से दरवाजा खुलवाया। स्वयं भीतर आकर उसने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया।
रवि ने सुहास से उसके विवाह की फोटो मंगवाईं। सुहास, फोटो देखकर फूट-फूटकर रोने लगा।
रवि ने उसे रोने दिया जिससे कि उसका मन तनिक हल्का हो जाए।
              कुछ देर बाद रवि ने पूछा ," तुम विवाह के बाद यकायक इतने बदल कैसे गए? विश्वास नहीं होता कि जो लड़का सपना पर जान छिड़कता था वो आज उसे खून के आंसू रुला रहा है। आखिर तुम्हे ऐसा किया ही क्यों ?"
             सुहास बोला, " विवाह के प्रारम्भ में सब कुछ ठीक था। हम सब प्रसन्न थे। किन्तु धीरे-धीरे माँ ने उसकी कमियां गिनानी प्रारम्भ कर दीं। उन्हें हमारा प्रेम विवाह संभवतः पसंद नहीं था।  वो रात दिन मेरे कान उसकी बुराइयों से भरतीं  रहतीं थीं।  मै तंग आ चुका था। मुझे लगा कि माँ के प्रति मेरा प्रथम कर्तव्य है इसलिए सदा सपना को झिड़कता रहा। पर आज जब मै उसका दर्द समझ पा रहा हूँ तो वो मुझसे दूर जाना चाहती है। रवि, मै, सपना और मुन्ने की बिना इस जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। उनसे दूर रहने से अच्छा है कि  मै ये संसार ही त्याग दूँ। "
       रवि ने उसके कन्धे  पर हाथ रखा और कहा , " सुहास, अभी भी अधिक देर नहीं हुई है। तुम कहो तो सपना को मै सदा के लिए तुमसे मिलवा सकता हूँ। पर उसके पहले तुम्हे मुझे आश्वासन देना होगा कि आगे से ऐसा कभी नहीं होगा। भारत का कौन सा ऐसा घर है जहाँ सास अपनी बहू  से प्रसन्न रहती है? संभवतः एक भी नहीं।  उसका कारङ  है कि यहाँ माएँ अपने बेटों को अपनी जान से भी अधिक प्यार करती हैं और वो अपने बेटे को खोना नहीं चाहतीं। तुम्हें उन्हें ये विश्वास दिलाना होगा कि माँ पहले तो मै अकेला था आपकी सेवा के लिए पर अब तो मेरी अर्धांगिनी भी मेरे साथ है।  हम सदा आपका ध्यान रखेंगे। इससे उन्हें, तुम्हे खोने का डर समाप्त हो जाएगा और वो तुम्हें और सपना  को अलग करने का प्रयास नहीं करेंगी। क्या कहते हो ? कर पाओगे ये सब ? यदि फिर से सपना की आँखों में  आंसूं आए तो ठीक नहीं होगा स्मरण रहे। "
और दोनों  दोस्त खिलखिलाकर हंस पड़े।
सुहास का पक्का वचन पाकर रवि ने सपना को फ़ोन किया जिसे सुनते ही वो भागी चली आई।
आज वर्षों पश्चात सपना को उसका सुहास और सुहास को अपनी सपना वापस मिल गए थे। दोनों की आँखों में हर्ष के आंसूं थे और सुहास ने सपना के हाथ को ऐसे कस कर थाम रखा था जैसे जीवन भर साथ निभाने का वचन वो पुनः उसे दे रहा हो।
रवि ने धीरे से अपनी आँखें पोंछी और कमरे से बाहर निकल गया।
सच है प्यार केवल पाने का ही नाम नहीं बल्कि देने का नाम है।


-------The Beginning-------








Thursday, 16 April 2015

अचेतन मन

Excerpt



The story is based on unconscious mind. God Almighty  has blessed us with a commendable body part which is unconscious mind. Whatever we do, it always guide us accordingly but we often subside it's voice and move according to our physical brain for our advantage. If at every point of time in life we listen to it prudently, we may restrict our self of doing any fallacious deed.






             आज उस बात को करीब २० वर्ष हो गए हैं। पर आज भी उस घटना की स्मृति से मेरा मन सिहर उठता है। आज भी मै अपने अचेतन मन की दी हुई सीख पर नतमस्तक हूँ। यदि समय रहते मैंने इसकी बात मान ली होती तो संभवतः मै उस भीषण, दर्दनाक पलों से स्वयं को बचा पाता। पर ये सोचकर ही संतोष कर लेता हूँ कि ईश्वर ने जब मुझे दूसरा अवसर दिया है तो मै कदापि अपने अचेतन मन द्वारा दिए गए निर्देशों की उपेक्षा नहीं करूँगा। और सभी को इसका हमारे जीवन में महत्व समझाऊंगा। 

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             बात उस समय की है जब मै अपनी किशोरावस्था में था। जीवन अति सुनहरा प्रतीत होता था। यूँ लगता था कि  मैं जो चाहे कर सकता हूँ।  नहीं जैसा कोई भी शब्द मेरे शब्दकोष में था ही नहीं। मै चाहूँ तो चाँद सितारे भी तोड़ सकता हूँ। मै स्वयं को किसी फ़िल्मी नायक से कम नहीं समझता था। जैसे-तैसे १२ वी की परीक्षा दी और साथियों के साथ घूमना फिरना, मौज मस्ती करना प्रारम्भ हो गया। 
      माँ होती तो संभवतः रोक-टोंक  करतीं पर उनकी छत्रछाया से मैं सदा वंचित ही रहा। उनका स्वर्गवास मेरे जन्म के कुछ दिन उपरान्त ही हो गया था। घर और बाहर, सभी का उत्तरदायित्व मेरे पिता पर ही था। वो मेरा जी जान से ध्यान रखते थे। सदैव मेरी इच्छाओं का भली भाँति  ध्यान रखते थे। यदा-कदा पढाई और साथी-संगी के बारे में समझाते थे। पर उम्र के उस जोशीले एवं नशीले पड़ाव पर न तो मै उनकी सुनता और ना कभी अपने अचेतन मन की। मेरा अचेतन मन अक्सर मुझे चेतावनी देता रहता कि ये ना कर, वो ना कर। पर मै सदा उसको ये कह कर चुप करा देता कि  ये ही तो मस्ती का समय है फिर तो जीवन भर केवल उत्तरदायित्व ही निभाने पड़ते हैं। मेरा उस उम्र में अपने लिए, अपने पिता के लिए भी कुछ उत्तरदायित्व है, इसकी जानकारी होने के उपरान्त भी मै उसे अनदेखा, अनसुना कर देता था। 



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       आज मेरा मन एक अप्रत्याशित डर से कांप रहा था। १२ वीं के पश्चात मैंने जो भी इंजिनीयरिंग की परीक्षाएं दी थीं उनका आज परिणाम आने वाला था। मेरा अंतर्मन तो परिणाम भली-भांति जानता था पर मैंने उसे व्यक्त नहीं किया था। 

पिताजी, "रोहन! देख जरा, तेरा परिणाम आ गया होगा। चल जरा शीघ्रता दिखा। मुझे फिर काम पर जाना है। "
रोहन ," हाँ पिताजी अभी देखता हूँ। "
अनमने मन से मैंने इंटरनेट पर देखा, उसमे मेरा नाम कहीं नहीं था। आँखे मसलीं और एक बार पुनः देखा पर मेरा नाम फिर भी नहीं दिखा। 
पिताजी अपने काम पर जाने वाले थे इसलिए जल्दी जल्दी अपना नाश्ता समाप्त कर रहे थे।  मुंह में ब्रेड का टुकड़ा भरे हुए ही बोले ,"हाँ बता, तेरा नाम कहीं है या नहीं।?"
रोहन, "हाँ क्यों नहीं? मेरा नाम ना हो ऐसा कभी हो सकता है क्या? मैं पढ़ने में कितना अच्छा हूँ , आप तो जानते ही हैं। "
पिताजी मुस्कुराते हुए ," हाँ मै तो जानता हूँ पर ये परीक्षा लेने वाले नहीं जानते कि तू आजकल पढाई कम, साथियों के साथ मौज मस्ती अधिक कर रहा है। पहले तो पढाई में तू सच में बड़ा अच्छा था। पर अब।"
मेरा ह्रदय जोर-जोर से धड़कने  लगा। पिताजी मेरी ओर ही आ रहे थे। मैंने जल्दी से कंप्यूटर बंद कर दिया जिससे कि  वे सच्चाई से दूर रहें।  पर कब तक?
पिताजी ,"अच्छा, शाम को देखता हूँ, अभी मुझे देर हो रही है। तुम ठीक से खाना खा लेना। और अपने बाइक वाले साथियों के साथ मत जाना। बड़ा ही तेज चलाते हैं।  चल अब किवाड़  लगा ले। जय श्री राम। "



         और पिताजी चले गए। मैं हैरान, परेशान सा बैठा रहा। खाना तो दूर, अब तो अपना थूक गटकना भी कष्टकर प्रतीत हो रहा था। क्या करूँ, क्या ना करूँ  कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मुझे स्वयं भी अपनी आँखों पर पूर्णतः विश्वास नहीं हो रहा था। मैं तो बचपन से ही पढाई लिखाई में अत्यंत मेधावी रहा हूँ , फिर ये क्या हो गया ?

आज मुझे स्मरण हुआ कि अनेकों बार मेरे अचेतन मन ने मुझे मेरे नए साथियों के साथ जाने से रोका था। अनेकों बार उसने समझाया था कि अभी मुझे मन लगाकर पढाई करनी चाहिए। अपनी और अपने पिता के सपने को पूरा करने के लिए मुझे कड़ा परिश्रम करना चाहिये। पर मैंने उसकी एक न सुनी। मुझे अपने नए साथियों के साथ बातें करना एवं घूमना-फिरना बड़ा ही आनंद देता था। उस समय अचेतन मन क्या स्वयं भगवान भी यदि मुझे रोकते तो संभवतः मै उनकी भी नहीं सुनता। 
इसी उहापोह में मै बैठा था कि मेरा मोबाइल फ़ोन घनघनाया। अरे ये तो सूरज का फ़ोन है। 
मै यानि  रोहन ," बोल सूरज ,क्या बात है ?"
सूरज चहकते हुए बोला, "अरे रोहन आज बाइक रेस का मन बन रहा है। जल्दी से तैय्यार हो जा। "
मैंने मरे हुए स्वर में बोला ," नहीं मै नहीं आ पाउँगा। तुम लोग जाओ। "
कहकर मैंने फ़ोन काट दिया। 
इसी उहापोह में कि कहाँ पर मुझसे चूक हो गई, मेरी आँख लग गई। तभी किसी के हिलाने और पुकारने से मेरी नींद खुली। 
सूरज ,"अरे रोहन उठ जा अब।  इतनी देर से जगा रहे हैं तुझे। चल रेस करते है बड़ा मजा आएगा। 
रोहन , "नहीं आज मेरा मन नहीं है।  मेरा परिणाम भी आशा के विपरीत आया है। पिताजी से झूठ बोला है पता नहीं शाम को कैसे बताऊंगा। तुम लोग जाओ। "
तभी करन भी अपनी बाइक  से आ गया। और मुझे चलने के लिए मनाने लगा। 
मन के किसी कोने से एक स्वर उभरा कि  मत जा और अपने पिता का सामना सच बोलकर कर। इन साथियों के साथ पुनः जाना ठीक नहीँ है। ये स्वर था,  मेरे अचेतन मन का। मैंने भी मन कड़ा कर कहा कि मुझे रेस नहीं करनी तुम लोग जाओ। 
पर मेरे मन में भी मौज मस्ती करने का लालच उभरने लगा। 
रोहन , "चल अच्छा चलता हूँ।  पर जल्दी आ जाऊंगा। "
और फिर हम निकल पड़े। 



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            सांय काल का सुहाना मौसम, सुन्दर मदमस्त पवन में  तीव्र गति से हमारी बाइक चलने लगी। और पल भर में ही हम हवा से बातें करने लगे। तीव्र गति से बाइक चलाना अत्यंत ही  रोमांचकारी था।  

हमने रेस का विचार त्याग कर केवल घूमने का तय किया। 
जीवन का मजा उसी पल आता है, जब हम उसका आनंद उठाते हैं। पिताजी अक्सर बाइक तेज चलाने को मना करते थे। पर क्या करें, इस समय नसों  में मानो रक्त के साथ साथ एक अदम्य उत्साह और उमंग दौड़ रहा था। मन की कौन सुने जब ऐसे साथियों का साथ हो। 
            करन ने बाइक एक शराब की दुकान के सामने लगा ली। मैं थोड़ा चौंका। मैंने थोड़ी अनिच्छा  व्यक्त करी। 
मैं ,"ये क्या है ? यहाँ क्यों आए हो? हम लोग शराब नहीं पीते हैं। "
सूरज ," तेरे कारण ही आए है। तेरा दुःख हमसे देखा नहीं जा रहा। तू जैसे ही इसे  पिएगा , सारे कष्ट दूर हो जाएंगे तेरे। "

करन , "सच है। चल अधिक नहीं, थोड़ी थोड़ी ले लेते हैं। हम भी कौन से पियक्कड़ हैं। जीवन के मजे लूट लें आज , फिर पता नहीं मौका मिले न मिले।  "

रोहन यानि , मै बड़े ही धर्म संकट में फंस गया। एक ओर मेरी चिंता करने वाले मेरे साथी और एक और मेरा अंतर्मन, जो चेतावनी दे रहा था कि ये गलत है, शराब मत पी। कहते हैं कि  प्यार से कोई पिलाए तो विष भी अमृत हो जाता है। पर साथियों का प्यार सच्चा है या नहीं इसका तनिक भी भान मुझे नहीं था। 

फिर क्या था मैंने भी थोड़ी सी पी और सच मे यूँ लगा कि  जैसे मन हल्का हो गया है। असफलता के परिणाम की बात को मैंने धुंए में उडा दिया। और अपने साथियों के रंग में ही रंग गया। अब मुझे किसी की भी चिंता न थी,  न तो पिताजी की और न ही अपने अचेतन मन की। 
थोड़ी देर के पश्चात करन बोला ," रोहन तू ही बाइक चला,  तूने हमसे कम पी  है। हमसे तो चलेगी ही नहीं। हमारे सिर तो नशे में घूम रहे हैं। "
मैंने आव देखा न ताव और चाभी लेकर बोला , "हाँ मै चला लूंगा। तुम मेरे सबसे अच्छे साथी हो। अब मुझे बड़ा ही सुकून का अनुभव हो रहा है। "
और बस फिर क्या था मैं बाइक चलाने लगा। इससे पहले ये संसार इतना सुन्दर कभी नहीं लगा था। 
रंग बिरंगे सितारे मानो मेरा पथ प्रदर्शन कर रहे थे। आसमान से भीना-भीना धुआं निकल रहा था। कहीं से मीठा-मीठा मन मोहक संगीत कानों को और रोमांच से भर देता था। मेरी हवा से बातें करती हुई बाइक कितने ही लोगो को अपने पीछे छोड़, आगे निकल आई थी। आज सच में जीवन एक सुखद अनुभूति के अतिरिक्त कुछ नहीं लग रहा था। 



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तभी अचानक मेरी आँखों के सामने अँधेरा सा छा गया।अचानक सिर जोर से चकराने लगा। पहला नशा संभवतः मेरी चेतना को निगलने लगाथा। 


आनद के पल अपनी समाप्ति की ओर थे। हवा अभी भी मंद मंद मुस्कुरा रही थी। 

और समय ? समय के गर्भ में क्या है इसका पता तो बड़े बड़े ऋषि मुनि भी नहीं लगा सके। ये पल में राजा को रंक और रंक को राजा बना सकता है। एक  पल में ये सुख को दुःख और दुःख को सुख में परिणित कर सकने में सक्षम है। इसकी मार से कौन बचा है , न तो कोई प्रेमी युगल, न कोई योद्धा और न ही कोई महान आत्मा।समय के निर्णय के समक्ष हमें हर हाल में नत मस्तक होना ही पड़ता है। तभी कहा जाता है कि समय बड़ा बलवान।   



              पर इस किशोर मन का क्या करें, जो किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं होता है। जो कभी दार्शनिक अरस्तु की भांति व्यवहार करता है तो कभी प्रेमी हीर-रांझा की भांति कोमल होता है , तो कभी किसी वैज्ञानिक की भांति प्रश्न करता है। किशोरों का एक पृथक ही संसार होता है। ये वर्तमान में कम और भविष्य के सपने बुनने में अधिक व्यस्त रहता है।और तब वो ये भुला देता है कि आज का किया गया परिश्रम ही सुनहरे भविष्य का निर्माण करेगा। 

            धड़ाक! धड़ाक! धड़ाक!  और तीव्र ध्वनि के साथ हमारी बाइक किसी कठोर वस्तु से टकराई और हम तीनों  पृथक  पृथक दिशाओं में गेंद की भांति उछल  गए।
हमारा मौज-मस्ती का समय अब जीवन मृत्यु की डगर पर स्वतः चल पड़ा। 

मैं, क्योकि बाइक चला रहा था, उछलकर एक गहरे गड्ढे में जा गिरा। तीव्र, असहनीय एवं भीषण पीड़ा से मैं तड़पने लगा। आँखों से आँसू रक्त समान बहने लगे. उस समय स्वयं को कोसने के अतिरिक्त मेरे पास और कोई चारा न था। सिर के बल गिरने से संभवतः, सिर से तीव्र गति से  रक्तस्राव प्रारम्भ हो गया था जो रिस-रिस कर मेरे नाक और मुंह में जा रहा था। बड़ा प्रयास करने के बाद भी मै अपने हाथ पैर न हिला सका और धीरे-धीरे मै अपनी चेतना खोने लगा। 
           कुछ समय अन्तराल मुझे लगा कि अब दर्द थोड़ा कम है तो प्रयास कर यहाँ से निकल कर घर जाता हूँ। पिताजी भी चिंतित होंगे। और मै बिना किसी दर्द के आराम से बाहर आ गया। बाहर आकर देखा तो टूटी हुई बाइक पड़ी थी। पर करन और सूरज कहीं दिखाई नहीं पड़े। मुझे लगा कि  संभवतः कोई उन्हें अस्पताल ले गया होगा। मै उनके लिए थोड़ा चिंतित हुआ पर सोचा कि फ़ोन कर के पता करता हूँ। 
         पर ये क्या? मोबाइल उठाने के लिए ज्यों ही मै गड्ढे में झुका, वहां तो मेरा रक्तरंजित शरीर निढाल सा पड़ा था। मै गर्मी के मौसम में भी पसीने से भीग गया।

         ' नहीं ,ये नहीं हो सकता, मै मर नहीं सकता।हाय! ये क्या किया मैंने ?अपने पिता को अकेलेपन के अंधेरों में धकेल दिया। क्या होगा मेरे पिताजी का? कैसे रहेंगे वे? आज किशोरावस्था के उस उत्साह और मौज मस्ती से मुझे घृणा हो रही थी। काश मै अपने पिता के मार्गदर्शन का उचित लाभ उठा पाता। काश मै एक बार पुनः उनकी गोद में सिर रखकर चैन से सो पाता। ये सब न हुआ होता यदि मैंने गलत साथी न बनाए  होते। काश ये और काश वो। अपने अचेतन मन की चेतावनियों को न सुनने की इतनी बड़ी सजा? नहीं प्रभु , बस एक मौका दे दो।  बस एक मौका। कभी कोई गलती नहीं करूँगा। सदा अपने पिता की आज्ञा मानूंगा। सदा तेरे अंश, यानि अपने अचेतन मन की पुकार उसके निर्देशों का पालन करूंगा।  बस एक मौका। ' सोचते सोचते मै संज्ञाशून्य हो गया। 



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             संभवतः मेरी करुण पुकार मेरे ईश्वर ने सुन ली। अब जब मुझे चेतना आई तो मै अस्पताल के एक कमरे में खड़ा अपने पट्टियों में लिपटे शरीर को स्वयं अपनी आँखों से देख रहा था। पिताजी एक बुत की भांति बैठे थे। रो रोकर उनके आंसू मानो समाप्त हो चुके थे। अभी भी वे मेरे ठीक हो जाने की प्रार्थना कर रहे थे। मेंरा परीक्षाफल पास में ही रखा था।कितना विशाल होता है माता पिता का ह्रदय ! मेरी इतनी गलतियों के बाद भी वे  मुझे प्यार से निहार रहे थे मानो कोई नवजात शिशु के जागने की प्रतीक्षा कर रहा हो। 
         मृत्यु के पश्चात  कहते हैं कि  कोई कष्ट नहीं होता। परन्तु ऐसा नहीं है, ह्रदय की पीड़ा, अपने कुकृत्यों का बोझ बड़ा ही कष्टप्रद होता है। मै अपने समक्ष अपना शरीर देख रहा हूँ, इसका शत प्रतिशत अर्थ है कि मै मृत्यु के मुख में जा चुका हूँ। शरीर का कष्ट तो नहीं था पर आत्मा पर एक बोझ अवश्य था। अब पश्चात्ताप के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं था। 
         पिताजी को अपने जीवन की यात्रा मेरे बिना ही पूरी करनी पड़ेगी। मैंने अपने दोनों हाथ जोड़कर भरे ह्रदय से पिताजी से क्षमा मांगी और इस संसार से विदाई लेने की आज्ञा मांगी। पर पिताजी तो एकटक मेरे लगभग निर्जीव मुखमंडल को देख रहे थे। 



       किसी धवल, तीव्र प्रकाश ने मुझे अपनी ओर खींचा और मैं उसमे विलुप्त होने लगा। तभी किसी का भारी किन्तु कोमल स्वर गूंजा, " एक मौका दिया जाए तो क्या अपना वचन निभाओगे ?"

मैं बुदबुदाया, "हाँ ,अवश्य निभाउंगा। पर कौन हो तुम? क्या तुम ईश्वर हो ? "
प्रत्युत्तर में वही स्वर गूंजा, "तुम्हारा अचेतन मन। मै इसी में रहता हूँ, जिसे तुम प्रभु, भगवान और कई पृथक नामों से पुकारते हो। मुझे कहीं और ढूंढने से अच्छा है कि अपने मन के भीतर ढूढो और सदा एक अच्छे व्यक्ति बनने का प्रयास करो। अब तुम वापस जाओ। जाओ एक मौका दिया तुम्हे। "



     और एक बार पुनः मैं तीव्र दर्द से छटपटा उठा। मानो किसी ने मुझे वापस मेरे शरीर में धक्का दे दिया हो। असीम पीड़ा से मैं तिलमिला उठा। तन का कष्ट अधिक था पर मन में एक अनंत शांति थी. ये मेरा पुनजन्म था। मुझे केवल एक पुनर्जन्म  ही नहीं मिला बल्कि मेरे दिव्य नेत्र भी खुल गए थे। 


           पिताजी ने जैसे ही मेरी आँखे थोड़ी सी खुली देखी ,वे मुझे सिर से पॉव तक चूमने लगे। 
पिताजी , "रोहन किसी बात की चिंता मत कर मेरे बच्चे।  तू जल्द ही स्वस्थ हो जाएगा। और एक बार पुनः अच्छे से पढाई करेगा। तू मेरा एक मात्र सहारा है, में तेरे बिना नहीं जी सकता रोहन, नहीं जी सकता,  मेरे बच्चे, मेरे लाल। आज पूरे दो महीनों पश्चात तुझे होश आया है। ईश्वर को लाखों बार मैं प्रणाम करता हूँ , उन्होंने मेरी आँखों की ज्योति, मेरी आत्मा का अंश और मेरे जीवन का अनमोल रतन  मुझे लौटा दिया। "



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                उसके पश्चात मैंने अपने को थोड़ा बदला। कडे परिश्रम के उपरान्त मेरा एक अच्छे इंजिनीरिंग कॉलेज के लिए चयन हो गया। युवावस्था का उत्साह कम नहीं था पर मेरा दृष्टिकोण बदल चुका था। जीवन अब भी अति सुन्दर है बस अब मै कभी बाइक नहीं चला सकता। अपने अपराधों का मूल्य मुझे चुकाना ही था। प्रकृति ने मेरे पैर छीनकर मुझे एक पुनर्जन्म प्रदान किया था। 



          आज मै सुशिक्षित एवं समझदार युवक हूँ। मेरा परिवार, एक सुखी परिवार है। मै  अपने पिता, अपनी सुघढ़ पत्नी और दो प्यारे बच्चों से अथाह प्रेम करता हूँ। और परिवार एवं समाज के प्रति अपने दायित्वों को भली प्रकार समझता हूँ।
          मेरी डायृरी का ये पृष्ठ, एक वृत्तांत, मै अपने सभी परिजनों, मित्रों और बच्चों को भी सुनाऊंगा। जिससे उनका मार्गदर्शन हो सके। 


आज भी उस पल की स्मृति, मेरी श्वास उखाड  देती है। उस घटना को ध्यान कर आज भी कड़ाके ठण्ड में मैं पसीने से भीग जाता हूँ। 



पाठको से मेरा अनुरोध है कि कृपया दूसरे मौके की प्रतीक्षा न कर अपना और अपने परिवार के  प्रति अपने दायित्व को समझ कर कार्य करें और अपने जीवन को सफल बनाएँ। 



-------समाप्त--------














Wednesday, 15 April 2015

बचपन की मोहब्बत


Photo Credit:pippalou
from :morguefile.com

मुम्बई  का एक ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ है। यहाँ आज गाने की प्रतियोगिता होनी है। कुछ प्रतियोगियों के बाद कुणाल का नाम पुकारा जाता है।
कुणाल एक २५ साल का नवयुवक है। ऊँचा, लम्बा कद, गोरा रंग, घुंघराले बाल और बहुत ही मीठी सी आवाज।
वो गाना, गाना शुरू करता है। गाना बड़ा ही सुरीला है। लोग मंत्रमुग्ध से कुणाल की मीठी आवाज में खो जाते हैं।
तभी जाने कैसे उसे अचानक खांसी आ जाती है।उसका गाना अचानक से रुक जाता है। कुछ देर गिटार, हारमोनियम वाले सँभालते है पर कब तक ?
तभी एक प्यारी, सुरीली आवाज में एक लड़की, उस गाने को गाते हुए स्टेज पर आती है। फिर से लोग उस गाने से आत्मविभोर हो जाते हैं।
कुणाल उसे देखकर चौक जाता है।
दोनों मिलकर गाना पूरा करते हैं। हाल एक बार फिर से तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज जाता है।
लोग कुणाल से एक और गाने की फरमाइश करते हैं।
पर कुणाल का ह्रदय उसे इस बात की गवाही नहीं दे रहा था। वो जल्द से जल्द उस लड़की से बात करना चाहता था।
कुणाल स्टेज के पीछे उस लड़की के साथ पहुँचता है और उससे पूछता है ,"तुम कहीं करिश्मा तो नहीं ?"
लड़की सर झुका कर बोलती है ," हाँ कुणाल ! मै  करिश्मा ही हूँ। "
कुणाल आश्चर्य से," लेकिन तुम तो बनारस में थीं, यहाँ मुम्बई में कैसे ?"
करिश्मा , "मै भी यहाँ गाना सीखने आई हूँ।"
कुणाल बोलता है, "लेकिन मेरा गाना  तुम्हे कैसे याद था ? और मै तुम्हारा धन्यवाद भी देना चाहता हूँ कि  तुमने समय पर आकर मेरा गाना संभल लिया। "
करिश्मा मुस्कुराकर कहती है ," कोई बात नहीं कुणाल। अच्छा अब मै चलती हूँ। "
कुणाल उसका हाथ पकड़कर कहता है ,"माफ़ करना मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा पर पूरी बात जाने बिना मै तुम्हे जाने नहीं दूंगा।  तुम्हारी आँखों की उदासी मुझसे कुछ कहना चाहती है। बताओ न करिश्मा ?
करिश्मा ,"अपने दिल से पूछो कुणाल, मुझसे नहीं। "
तभी कुणाल की माँ शालिनी आती है , "करिश्मा ! करिश्मा ! ये तुम ही हो न ?तुम्हें अब तक ये गाना याद है ?"
करिश्मा ,"आंटी मुझे सब कुछ याद है पर कुणाल शायद सब भूल गया है। अच्छा आंटी मै चलती हूँ। "
तभी करिश्मा की माँ मालिनी आती है ,"शालिनी कैसे है तू?"
शालिनी और मालिनी बचपन की सहेलियां हैं। दोनों सहेलियां गले मिलती हैं।  दोनों की आँखे छलक जाती हैं।
कुछ साल पहले वे दोनों बनारस में रहा करती थी।
वे जब भी मिलती थीं तो कुणाल और करिश्मा की शादी की बातें करती थीं।तब कुणाल सिर्फ ९ साल का और करिश्मा ८ साल की थी। 
धीरे-धीरे कुणाल और करिश्मा अच्छे दोस्त बन गए। करिश्मा उसे अपने मोहब्बत समझने लगी।  पर कुणाल को इसका एहसास नहीं हुआ।
कुछ सालों बाद कुणाल का परिवार मुंबई शिफ्ट हो गया और कुणाल सब भूल गया।
करिश्मा तेजी से वहां से निकल जाती  है।
कुणाल भागकर उसे पकड़ लेता है और उसकी आँखों में आँखें डालकर पूछता है ,"तो तुमने बचपन की मोहब्बत को अपने दिल में छिपा कर रखा है ?"
करिश्मा शरमाकर ,"नहीं कुणाल ऐसा नहीं है। तुम पर कोई जबरदस्ती नहीं है। "
कुणाल ,"अच्छा तो अब तुम मुझे पसंद नहीं करतीं। ठीक है फिर मै कोई दूसरी। "
करिश्मा जोर-जोर से रोने लगती है।
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"करिश्मा!!! ओ करिश्मा !!! जल्दी उठो, आज  कुणाल की शादी में जाना है ना। चलो जल्दी करो " करिश्मा की माँ उसे हिलाते हुए बोलीं।
हड़बड़ाकर उठ गई करिश्मा ,"क्या ?????? कुणाल कहाँ है माँ ?तो मै क्या ? ओह मेरा सुन्दर सपना टूट गया? अनजाने ही उसकी आँखों से आंसूं छलक पड़ते हैं। दिल धड़कने लगता है। "
मालिनी घबरा कर , "कौन सा सपना मेरी राजकुमारी? अच्छा कहीं तू कुणाल के साथ तेरी शादी वाली बात तो नहीं कर रही ?"
करिश्मा, "नहीं माँ, ऐसा कुछ नहीं है। मै ठीक हूँ।आप चलो मै तैयार होकर आती हूँ।  "
बाथरूम में जाकर फूटफूट कर रोती है करिश्मा। किसको बताए अपना दर्द ? ये बचपन की मोहब्बत आखिर उसे ही क्यों हुई ? क्यों नहीं उसे भी इस प्यार का एहसास हुआ, आखिर क्यों नहीं?"
और कुछ देर बाद अपने दिल पर पत्थर रख करिश्मा अपनी बचपन की मोहब्बत की शादी में जाने के लिए तैयार हो जाती है।
फेरों के समय अचानक शोर मच जाता है कि एक लड़की बेहोश हो गई है। करिश्मा, कुणाल की शादी के समय ही जहर खा लेती  है।
शालिनी रोते  हुए उससे माफ़ी मांगती है।
शालिनी ,"करिश्मा हम दोनों सहेलियों ने तुम दोनों की शादी की बात बचपन में कई बार करी थी। पर तुमने तो इसे दिल से ही लगा लिया।"
मालिनी रोते हुए कहती है ,"मैंने इससे कई बार पूछा पर इसने हमेशा टाल  दिया। शायद ये चाहती थी कि कुणाल को भी एहसास हो तभी ये कुछ कहेगी।  अगर ऐसी बात थी तो तुमने मुझे पहले कभी बताया क्यों नहीं मेरी बच्ची। एक बार तो मुझे बता देतीं। "
कुणाल को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। वो मन ही मन सोच रहा था , 'क्या बचपन की मोहब्बत इतनी सच्ची होती है ? क्या कोई किसी से इतना निस्वार्थ प्रेम भी कर सकता है। मुझे क्यों नहीं ये एहसास हुआ ? आखिर क्यों करिश्मा को इतना दुःख, इतनी वेदना झेलनी पड़ी। ? काश मै भी उसके प्रेम का उत्तर प्रेम से दे पाता ।  काश। "
करिश्मा एक बार कुणाल को देखना चाहती थी।
कुणाल उसे पुकारता है ,"करिश्मा ये क्या किया तुमने ?"
कुणाल जल्दी से उसका सर अपने गोद  में रख लेता है।
करिश्मा अपनी आखिरी साँसों के साथ कहती है ,"कुणाल! इस बार ना सही अगले जन्म में तुम मेरे ही होना। वादा करो कुणाल, अगली बार मुझे यूँ ना बिसराओगे। मै तुम्हारे बिना जी कर करती भी क्या कुणाल। मेरी बचपन की मोहब्बत हमेशा अमर रहेगी। कुणाल तुम खुश रहना। अपना नया जीवन शुरू करना कुणाल। मुझे भूल  …… कुन ……  आल।  हो सके तो ,मुझे माफ़ कर देना कु ........"
करिश्मा हाथ जोड़कर अपनी माँ से माफ़ी मांगती है। अपनी आँखों में वो अपने बचपन की मोहब्बत को समेटे सदा के लिए विदा हो जाती है।
उसका दर्द से भरा दिल तड़प -तड़प कर अब भी यही पुकार रहा था।
काश एक बार तो कुणाल से अपने मन की बात कह पाती, क़ाश एक बार तो उसके गले लगा कर रो पाती, काश ये मेरा सपना टूटा न होता तो मै कुछ देर और उसके साथ होती, काश वो भी मुझे अपनी बचपन की मोहब्बत समझता, काश  कभी किसी से उसकी मोहब्बत न छिनती, काश वो मेरी धड़कनो  को महसूस कर सकता, काश इश्वर ने ये जीवन कुणाल के नाम करने का एक मौका दिया होता, काश ये दिल उसके नाम ही से धड़कता न होता, काश ये शर्म और रस्मों रिवाजों का फासला न होतातो  बचपन  की मोहब्बत  आज सफल हो जाती।


आज एक बार फिर प्रेम दीवानी मीरा अपने कान्हा, अपने कुणाल की बाहों में सदा के लिए सो जाती है।

-----The End-----  

Yes! I’m in Love

Fake love… “Yes! I’m in love” – despite of such beautiful words the effects of love on internet could be catastrophic.Read Hindi story,
Hindi Story – Yes! I’m in love
Photo credit: kamuelaboy from morguefile.com

आज का सूर्य कुछ अधिक ही प्रकाशमान था। ये सुबह कामना के लिए इतनी प्रसन्नता भरी थी कि उसके पाँव ही धरती पर नहीं पड़ रहे थे। आज उसके जीवन का  लछ्य पूरा हो गया था। कामना की आज  एक मनोहिकित्सक के पद पे एक बड़े अस्पताल में नियुक्ति थी। उसने अपनी मनपसंद हल्के  पीले रंग की साड़ी निकालीढीला सा जूड़ा बाँधा और अस्पताल के लिए निकल गई।
ये शहर उसके लिए नया नहीं था। यहीं उसका बचपन बीता था। पुरानी स्मृतियों को ध्यान करते ही उसके मुख पर एक मोहक मुस्कान छा गई।
डॉ कामनाअपना केबिन देखकर उसके हर्ष का पारावार ही न रहा। कामना और सुपर्णा  की १० तक की पढाई इसी शहर में हुई थी। उसका और उसकी सखी सुपर्णा का ये ही स्वप्न था कि दोनों एक मनोचकित्सक बनेंगीं। तन के घाव तो भर जाते हैं पर मन के घाव भरना दुष्कर हे अतः वे ये ही मार्ग अपनाकर मनोरोगियों को ठीक करेंगी।
अभी कामना अपने केबिन में प्रवेश करने ही वाली थी कि कोई स्त्री उससे टकराती हुई निकल गई। और वो यही दोहरा रही थी , “Yes, I’m in love, Yes I’m in love.” हतप्रभ सी कामना बड़ी देर तक उसे जाते देखती रही।
तभी एक नर्स ने आकर उसका ध्यान भंग किया बोली, “डॉ साहिब आइयेआइयेआप बैठिये.. अरे ये तो पागल है। 
कामना ने तनिक सख्ती से कहा, “नहीं,नहीं ,  पागल नहींमनोरोगी है। 
किन्तु कामना का अंतर्मन तीव्रता से कांप रहा था। वही कदकाठीवही रंग रूप वही मीठी सी ह्रदय को छूने वाली बोली । कहीं ये सुपर्णा ….… नहीं नहींये कैसे हो सकता है ……
कामना ने अपने सारे विपरीत विचारों का अंत करा और सोचा कि ,’ इसी शहर में मेरी सखी है. संभवतः इसीलिए मुझे वही हर स्थान पर दिख रही है। कामना मन ही मन विचार कर रही थी कि अवश्य ही किसी ने उसका हृदय दुखाया होगा तभी तो….
जैसे तैसे दिन व्यतीत कर कामना सायं को सीधे सुपर्णा के घर पहुंची। उसेउससे मिलने की तीव्र इच्छा थी। पर ये क्या। । उसके घर पर तो ताला लगा हुआ था।
कामना का ह्रदय किसी अनहोनी की आशंका से तीव्रता से धडक रहा था।
तभी उसे सुपर्णा की पड़ोसन दिखाई पड़ी। उसने उनसे विनती की कि यदि उन्हें कुछ पता हो तो कृपा कर उसे बता दे।
जब पड़ोसन को कामना ने अपना परिचय दिया तो वो बोलीं, ” देखिये कमनाजी बड़ा ही बुरा हुआ सुपर्णा के साथ। 
कामना बहुत ही घबरा गई ,” क क्या हुआ। … मेरी सखी के साथ वो वो ठीक तो है ना ?”
पड़ोसनकामना को अपने घर के भीतर ले गई और बताने लगी, “आग लगे इस नई तकनीकनए मोबाइल आदि को। ये लोगों का जीवन पल में उजाड़ सकती है। 
कामना अति आश्चर्य से ” मोबाइल…? मै कुछ समझी नहीं। आप कृपा कर मुझे सब कुछ और विस्तारपूर्वक बताइये। मै १० वी तक तो उसके साथ ही पढ़ी हूँ। वो बिलकुल स्वस्थ थी। और चाची जी। . वो कहाँ हैं?”
पड़ोसन गहरी सांस लेते हुए बोली, “उसकी माँ को तो उसका दुःख खा गया। 
कामना ,”दुःख कैसा दुःखक्या हुआ था ऐसा जो ये सब …”
पड़ोसन बोली, ” सुपर्णा को मै बचपन से जानती हूँ। बड़ी ही प्यारी बच्ची थी। १२ वी के बाद ही उसका डॉक्टरी में चयन हो गया था। बड़ी ही खुश थी वे दोनोंमाँ,बेटी। पर होनी को कौन टाल सकता है?
डॉक्टरी के चौथे साल तक सब कुछ ठीक ही चल रहा था।  बल्कि मेरे बच्चे उसे चिढ़ाते भी थे कि क्या आप पागलो का इलाज करोगी तब वो हंसकर कहती थी कि पागल नहींमनोरोगी। जिनका मानसिक संतुलन कोई ठेस लगने से बिगड़ जाता है। अचानक उसमे परिवर्तन आने लगा। वो चुप चुप रहने लगी। वो सदा अपने मोबाइल पर ही कुछ करती रहती थी। मोबाइल जैसे उसका सर्वप्रिय साथी बन गया था।
एक दिन आखिर उसकी माँ को उसके मोबाइल वाले प्रेम का पता चल ही गया। उसकी माँ ने जांच की तब पता चला कि फेसबुक पर उसका कोई बड़ा ही घनिष्ट मित्र है। माँ ने सोचा कि चलो नया युग हैआजकल तो ये आम बात है। माँ ने चालाकी से उस लड़के से उसका पता पूछा। उसने पता तो नहीं बताया किन्तु फ़ोन नंबर बता दिया। उस नंबर की सहायता से मेरे साथ जाकर सुपर्णा की माँ ने लड़के के घर का पता लगाया।
हम दोनों एक दिन उस लड़के के घर सुपर्णा के विवाह की बात चलाने  गए। उस घर में एक लगभग ७०-७५ का एक वृद्व व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ रहता था। सुपर्णा की माँ ने सोचा कि हमसे अवश्य ही पता लिखने में कोई गलती हो गई है।
तभी उनका कोई पडोसी उनसे मिलने आ गया और वृद्व व्यक्ति अपना मोबाइल टेबल पर ही भूल गया।
ट्रिन -ट्रिन ” फ़ोन थोड़ी देर के लिए चमका और सुपर्णा की मुस्कुराती फोटो उसकी माँ को दिख गई। सुपर्णा की माँ सकते में आ गई।
पड़ोसन उन्हें धीरे से घर ले आई बोली अपनी बेटी को समझाओ। ऐसे धोखेबाजों से बचकर रहे।
अगले दिन ही सुपर्णा की माँ बोली,”सुपर्णा! मै तेरा विवाह करना चाहती हूँ अतः यदि तुझे कोई पसंद हो तो बता दे। 
सुपर्णा हर्ष से बोली, “मेरी प्यारी माँ! Yes! I’m in love. तुम कैसे जान गई माँ? ”
लाख प्रयत्न करने पर भी जब सुपर्णा उसे घर न बुला सकी तो उसने अपनी माँ से कहा, “माँसंभवतः:वो आपसे मिलने में शर्मा रहे हैं। पता नहीं क्यों आने को तैयार नहीं हैं। 
सुपर्णा की माँ उसे लेकर उसी पते पर पहुँची और उसेउस लड़के यानि वृद्व  से मिलवाया। सुपर्णा की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उसका अटूट प्रेम और अगाध  विश्वास सब एक ही झटके में बिखर गया।
किन्तु तब भी उसने अपनी माँ से कहा कि अवश्य ही उन्हें कुछ धोखा हुआ है। ऐसा कैसे हो सकता है मैंने उसकी फोटो देखी है। वो तो एक नवयुवक है।
माँ ने कहा,” हाथ कंगन को आरसी क्या ? ”
तत्काल माँ ने सुपर्णा के मोबाइल से एक मैसेज उसी लड़के को भेजा। वृद्ध  का मोबाइल घनघनाया और उस पर सुपर्णा का मुस्कुराता मुख प्रतिबिंबित हुआ। सुपर्णा को अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। उसने पुनः एक मैसेज कियातब कहीं जाकर उसको विश्वास हुआ। सुपर्णा की सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई।
इतना बड़ा धोखावो भी एक पढ़ी लिखी लड़की के साथ आज उसे अपनी समझअपनी पढाई और अपने अस्तित्व तक से घृणा हो गई। इतना बड़ा आघात सुपर्णा सह नहीं सकी और अपना मानसिक संतुलन खो बैठी।
बहुत दवा कराई उसकी माँ ने किन्तु ……
पिछले साल जब उसकी माँ की मृत्यु हुई तो उसके सम्बन्धियों ने उसे पागलखाने में डाल दिया। ” पड़ोसन की आँखे भर आई,सब सुनाते -सुनाते।
और कामना …… उसे बिच्छू के काटने से भी भयानक दर्द का आभास हुआ। अपनी प्रिय सखी का दर्द उसके ह्रदय को दहला गया।
 “हाय !! ये क्या हो गया इतनी निष्ठुरताइतना अन्याय एक मासूम के साथक्या बिगाड़ा था उसने किसी काक्यों खेला किस्मत ने उसके साथ ऐसा दर्दनाक खेल क्यों ?????? आखिर क्यों???? ” कामना दर्द से चीख पड़ी।
बोझिल मन से कामना अपने घर की और बढ़ी। सुपर्णा की चिंता उसे खाए जा रही थी। मन ही मन वो इस नई तकनीक नए साधनो और ऐसे अपराधियों को कोस रही थी जो मासूमों को उम्र भर का दर्द दे करतड़पने के लिए छोड़ देते हैं। इसके चलते न जाने कितनो का ह्रदय टूटाकितनों ने अपनी जान गंवाई और कितने मानसिक रोगियों की भांति जीवन जीने पर विवश हो गए हैं। आखिर लोग क्यों नहीं समझते कि ये एक मृग मरीचिका है। ये सच्चा प्रेम नहीं उसका प्रतिबिम्ब मात्र है।
कामना आज स्वयं से यही प्रश्न कर रही थी कि,  क्या वो अपनी प्यारी सखी का दुःखउसकी वेदना दूर कर पाएगी ?”पूरी रात्रि कामना चिंतामग्न ही रही। रात्रि की कालिमा के साथ -साथ उसके मन का चिंताओं का अन्धकार भी शनैः शनैः दूर होने लगा।
आशावादी कामना ने इतनी सहजता से हार मानना नहीं सीखा था। मन ही मन कामना विचार कर रही थी कि आज यदि सुपर्णा ठीक होती तो संभवतः दोनों सहेलियाँ साथ में काम कर रही होतींलोगों के मन के घावों को अपने प्रेम एवं स्नेह से भर रही होतीं।
पर हाय रीकिस्मत आज एक मनोचित्सक की सखी एक मनोरोगी बन चुकी थी। अस्पताल पहुँचते-पहुँचतेडॉ कामना ने स्वयं से ये प्रतिज्ञा की कि, ” सुपर्णामुझे पूरा विश्वास है कि मै तुझे उस मायाजाल से निकाल कर असली एवं सुन्दर संसार में वापस ले आउंगी। मै प्रण करती हूँ किएक दिन तू अवश्य अपना खोया हुआ आत्मविश्वास वापस पाएगी और अपने जीवन से ये प्रसन्नता से पुनः कहेगी , ” Yes! I’m in love. “
डॉ कामना तेजी से अपने केबिन की और बढ़ गई।
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