Saturday, 6 January 2018



ज़िन्दगी 

आजकल हंसने का रिवाज नहीं..
झूठे ही मुसकुराते हैं हम।
पलकों के नीचे कितने गम ..
कितने आँसू छिपाते हैं हम ।
अनजानों की इस नगरी में ..
अपनों को छोड़के आए हैं ।
वक्त की गिरह में देखो हम ..
मासूम सी हंसी भूलकर आए हैं।
ज़िंदगी! तेरी रफ्तार में हम ..
कुछ चीज़ें छोड़ के आए हैं।
वक्त की गिरह में देखो..
अपना बचपन भूलकर आए हैं।
ज़िंदगी! तेरी रफ्तार में हम ..
चीज़ें कुछ छोड़ के आए हैं।
कहने को हम हुए बड़े पर..
बड़प्पन भूलके आए हैं।
हिल-मिल कर खेला करते थे ..
मेल-मिलाप भूल के आए हैं ।
ज़िंदगी! तेरी रफ्तार में हम ..
चीज़ें कुछ छोड़ के आए हैं।
लौटा सके तो लौटा देना ..
हम जो नियामत छोड़के आए है ।
ज़िंदगी! तेरी रफ्तार में हम ..
चीज़ें कुछ छोड़ के आए हैं।



--ऋतु अस्थाना

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