कहीं रो रहा है बचपन ,
बेहाल सा पड़ा है।
काँटों की चादरों पे ,
ग़मगीन सो रहा है।
वो कहते हैं..ये हैं अपने ,
और ये रहे बेगाने।
गैरों को मार दो तुम,
हथियार तान दो तुम।
ज़ालिम हैं ये न जाने ,
है नहीं गैर कोई।
क्यों दिल में गाड़ी खंजर ,
नफ़रतें क्यों ये बोईं।
मंदिरों के झगडे देखो ,
मस्जिदों में हो रहे हैं ।
मासूम से फ़रिश्ते ,
हो अनाथ फिर रहे हैं ।
जब एक ही खुदा है ,
भगवान् एक ही है।
क्यों गहरी है इतनी खाई ,
जब इंसान एक ही है।
जब तलक न बुझेगी ,
चिंगारी ये नफरतों की।
तड़पेगा वो खुदा भी ,
भगवान् रो रहा है।
कहीं रो रहा है बचपन ,
बेहाल सा पड़ा है।
------ऋतु अस्थाना
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