Monday, 15 January 2018

कहीं रो रहा है बचपन , बेहाल सा पड़ा है।


कहीं रो रहा है बचपन, बेहाल सा पड़ा है।
    

कहीं रो रहा है बचपन ,
बेहाल सा पड़ा है।    
काँटों की चादरों पे ,
ग़मगीन सो रहा है।   
वो कहते हैं..ये हैं अपने ,
और ये रहे  बेगाने।  
गैरों को मार दो तुम,
हथियार तान दो तुम।  
ज़ालिम हैं ये न जाने ,
है नहीं गैर कोई।  
क्यों दिल में गाड़ी खंजर ,
नफ़रतें क्यों ये बोईं। 
मंदिरों के झगडे देखो ,
मस्जिदों में हो रहे हैं ।  
मासूम से फ़रिश्ते ,
हो अनाथ फिर रहे हैं ।
जब एक ही खुदा है ,
भगवान् एक ही है।  
क्यों गहरी है इतनी खाई ,
जब इंसान एक ही है।  
जब तलक न बुझेगी ,
चिंगारी ये नफरतों की। 
तड़पेगा वो खुदा भी ,
भगवान् रो रहा है। 

कहीं रो रहा है बचपन ,
बेहाल सा पड़ा है।    



------ऋतु अस्थाना      

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