Friday, 28 August 2015

देखो तुम मत जाना भूल


देखो तुम मत जाना भूल




मेरे प्यारे नटखट भैया,
हरदम यूँ ही हँसते रहना। 

ये है कितना  प्यारा नाता ,
तुम बिन अब कुछ भी न भाता।  

तुम बिन है सूना ये आँगन ,
तुम हो तो है रक्षाबंधन। 

पढ़ लिख कर तुम बड़े बनो,
जग में ऊँचा नाम करो। 

कांटे तेरी राहों के पल में ,
सब हो जाएंगे  फूल। 

पर अपनी छोटी बहना को ,
देखो तुम मत जाना भूल। 



Saturday, 8 August 2015

आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें 



ये कहानी यू पी के एक गाँव अचलगंज की है। सिद्धनाथ अपनी पत्नी और दो लड़कों के साथ गांव में रहता था। बड़ा लड़का रामसहायक उसके साथ खेती करता था। वे दोनों धरती को अपनी माँ और खेती को उनका वरदान मानते थे। इतना श्रम करने पर भी  उनकी तंगी थी कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। प्रति वर्ष सिद्धनाथ का छोटा बेटा, सियाराम शहर से नए- नए रासायनिक उर्वरक, खाद और कीटनाशक लाता किन्तु फसल बढ़ने के बजाय, कम ही होती गई। सर पर कर्ज बढ़ता चला गया। इसी बीच सिद्धनाथ ने अपने बड़े लड़के की शादी कर दी। एक सदस्य और बढ़ गया। रामसहायक अपने बापू से सब खेती बेचकर शहर चलने की जिद करने लगा। पर वो नहीं माने।  उनका कहना था कि ये धरती हमारी माँ है, हम इसे छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। 
ऐसे ही दिन बीत रहे थे। साल भर बाद रामसहायक के एक बेटी हुई। अब तक तो घर की हालत और बिगड़ चुकी थी। 
जब रामसहायक से अपनी पत्नी और बच्ची का कष्ट देखा नहीं गया तो वो उन्हें लेकर अपने एक मित्र गोपाल के साथ कानपूर शहर आ गया। हालांकि गुजर करने के लिए उसे  एक दुकान में  चौकीदारी  का काम करना  पड़ा।उसकी पत्नी गौरी  को भी घर-घर जाकर बर्तन धोने पड़े। साल भर में उसे एक पुत्र की भी प्राप्ति हो गई। 

गांव में सिद्धनाथ अब अपने पिता के साथ खेत पर जाने लगा था। रामसहायक अपनी कमाई का कुछ भाग  गांव भेज दिया करता था। वो अब भी अपने पिता को समझाया करता था कि सब कुछ बेचकर शहर आ जाएं पर सिद्धनाथ अपने निश्चय के धनी  थे। उन्होंने गांव छोड़ना स्वीकार नहीं किया। 

रामसहायक को बेटी,राधा, कानपुर  के एक सरकारी स्कूल में पढ़ती है। वो अत्यंत ही मेधावी छात्र है। उसकी मैडम, सुनंदा को उससे बड़ी उम्मीदें हैं। 

सिद्धनाथ को गांव छोड़े लगभग कई साल हो गए थे। पर उसे अभी भी अपने गाँव की मिटटी की भीनी भीनी खुशबू की याद आती है। गांव की हरियाली,  स्वच्छ एवं ताज़ी हवा उसे बहुत प्रिय थे।उसकी आँखे अक्सर नाम हो जाती हैं। वो छुट्टियों में  कभी कभी अपने परिवार के साथ  गांव जाया करता  था।

राधा को भी अपना गांव बहुत पसंद था। उसे अपने  दादी और दादा से बहुत कुछ सीखने को मिलता था। दादी सब कुछ संभाल कर रखती थीं और उनका उचित उपयोग करती थी। उसे कभी कभी अपनी दादी की कुछ बातें अपनी टीचर की बातों से मिलती जुलती लगती थी।

  एक बार रामसहायक के पिता के मित्र ने उनसे कहा कि आजकल शहरों में लोग खेती की भी पढाई कर रहे हैं।  कहते हैं कि पढ़लिख कर ओर्गानिक  खेती करनी चाहिए जो कि किसी को नुक्सान  न करे। और इसमें पैसे भी ज्यादा मिलेंगे। राधा भी अपनी मैडम वाली बात बताती है। पर अब सवाल ये है कि कौन सीखे ?

सियाराम, गांव छोड़कर नहीं जा सकता था। तय हुआ कि रामसहायक ही सीख ले किसी तरह से। रामसहायक ने शाम का कोर्स शुरू कर दिया।और एक दिन उसे उसका प्रमाणपत्र भी मिल गया।
१२ वीं की परीक्षा देते ही राधा  ने भी आर्गेनिक फार्मिंग पढ़नी शुरू कर दी।
रामसहायक अपने भाई के साथ मिलकर छुट्टी-छुट्टी खेत का काम भी सँभालने लगा। और फिर एक दिन उसने अपने परिवार से कहा "आ अब लौट चलें " , अब वो अपनी फसल दिल्ली के आर्गेनिक मार्किट में बेचने लगे। उनका सामान उचित दामों पर बिकने कागा और धीरे धीरे उनकी पैसों की तंगी जाती रही।
    -------------------- ऋतु अस्थाना